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नित्यानित्यत्ववाद का समर्थन
नित्यानित्ये तथा देहाद् भिन्नाभिन्ने च तत्त्वतः ।
घटन्त आत्मनि न्यायाद् हिंसादीन्यविरोधतः ॥१॥
आत्मा को नित्य एवं अनित्य दोनों तथा उसे शरीर से भिन्न एवं अभिन्न दोनों मानने पर हिंसा आदि तर्क-पूर्वक एवं अविरोध-पूर्वक संभव सिद्ध होते हैं ।
(टिप्पणी) यह एक जैन मान्यता है कि आत्मा नित्य एवं अनित्य दोनों तथा शरीर से भिन्न एवं अभिन्न दोनों है ।
पीडाकर्तृत्वयोगेन देहव्यापत्त्यपेक्षया ।।
तथा हन्मीति संक्लेशाद् हिंसैषा सनिबंधना ॥२॥
(प्रस्तुतवादी के मतानुसार) क्योंकि (हिंसा होते समय) एक व्यक्ति में (अर्थात् मारने वाले में) पीड़ा-कर्तृता रहती है, एक दूसरे व्यक्ति के (अर्थात् मारे जाने वाले के) शरीर का नाश होता है, तथा एक व्यक्ति के (अर्थात् मारने वाले के) मन में 'मैं (इसे) मारूं' इस प्रकार की पाप-भावना उत्पन्न होती है। इसलिए हिंसा एक सकारण घटना सिद्ध होती है ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि दो व्यक्तियों के बीच हिंस्य-हिंसक भाव तभी संभव है जब वे दोनों नित्य तथा अनित्य दोनों हों, क्योंकि तभी हम कह सकेंगे कि इनमें से एक व्यक्ति के वही व्यक्ति बने रहते उसमें नई बात हुई 'हिंसा-भावना का उदय तथा हिंसा-कर्तता' जबकि इनमें से दूसरे व्यक्ति के वही व्यक्ति बने रहते उसमें नई बात हुई 'हिंसा का शिकार होना' ।
हिंस्यकर्मविपाकेऽपि निमित्तत्वनियोगतः ।
हिंसकस्य भवेदेषा दुष्टा दुष्टानुबंधतः ॥३॥ यद्यपि हिंसा होते समय मारे जाने वाले व्यक्ति के अशुभ 'कर्म' का उदय
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