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एकांगी नित्यत्ववाद का खंडन
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हो जाने वाले शरीर से भिन्न है तथा उसका निर्माण मन, बुद्धि, अहंकार आदि कतिपय अ-भौतिक पदार्थों से हुआ होता है । आचार्य हरिभद्र की आपत्ति है कि जब एक आत्मा का एक सूक्ष्म शरीर से संबंध ही संभव नहीं तब इस सूक्ष्म शरीर के संसार-चक्र में भ्रमण को इस आत्मा का संसार-चक्र में भ्रमण कहना कोई अर्थ नहीं रखता । साथ ही आचार्य हरिभद्र एक दूसरी सांख्य-योग मान्यता की भी आलोचना कर रहे हैं । वह मान्यता यह है कि अपने स्थूलसूक्ष्म शरीर को आधार बनाकर एक आत्मा उन उन सुख - दुःख आदि का भोग करती है; आचार्य हरिभद्र का पूछना है कि जब भोग एक क्रिया है तब एक निष्क्रिय आत्मा के लिए किसी प्रकार का भोग करना संभव कैसे ।
इष्यते चेत् क्रियाऽप्यस्य सर्वमेवोपपद्यते । मुख्यवृत्त्याऽनघं किन्तु परसिद्धान्तसंश्रयः ॥८॥
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हाँ, यदि प्रस्तुतवादी आत्मा में क्रिया संभव मान ले तो उक्त सब बातें (अर्थात् एक व्यक्ति द्वारा अहिंसा, सत्य आदि का पालन, एक आत्मा का संसारचक्र में भ्रमण, एक आत्मा की मोक्ष, आदि । निर्दोष रूप से तथा वास्तविक अर्थ में संभव बन जाएगी, लेकिन तब तो वह (अपने सिद्धान्त का नहीं) दूसरे के सिद्धान्त का आश्रय ले रहा होगा ।
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