________________
१४
एकांगी नित्यत्ववाद का खंडन
तत्रात्मा नित्य एवेति येषामेकान्तदर्शनम् ।
हिंसादयः कथं तेषां युज्यन्ते मुख्यवृत्तितः ॥१॥
अब यहाँ (अर्थात् धर्म के साधनों की चर्चा के प्रसंग में) प्रश्न उठता है कि जिन वादियों की एकांगी मान्यता यह है कि आत्मा नित्य ही है उनके मतानुसार हिंसा आदि वास्तविक अर्थ में संभव कैसे ।
निष्कियोऽसौ ततो हन्ति हन्यते वा न जातुचित् ।
किञ्चित् केनचिदित्येवं न हिंसाऽस्योपपद्यते ॥२॥
प्रस्तुत वादी के मतानुसार क्योंकि आत्मा निष्क्रिय है इसलिए न तो कभी किसी को कोई मारता है न कभी किसी के द्वारा कोई मारा जाता है; और ऐसी दशा में उसके मतानुसार हिंसा संभव ही नहीं बनती ।
अभावे सर्वथैतस्याः अहिंसाऽपि न तत्त्वतः ।
सत्यादीन्यपि सर्वाणि नाहिंसासाधनत्वतः ॥३॥ __ और हिंसा के सर्वथा अभाव की अवस्था में अहिंसा भी वस्तुतः संभव सिद्ध नहीं होती; साथ ही उस दशा में सत्य आदि शेष धर्मसाधन भी संभवसिद्ध नहीं होते और वह इसलिए कि वे सब अहिंसा के ही तो उपकारक है।
__ (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र की समझ है कि अहिंसा सत्य आदि पाँच चरित्र-सद्गुणों में अहिंसा एक मूल-सद्गुण है तथा सत्य आदि उसके चार सहायक सद्गुण ।
ततः सन्नीतितोऽभावादमीषामसदेव हि । सर्वं यमाद्यनुष्ठानं मोहसंगतमेव वा ॥४॥
इस प्रकार जब इनकी (अर्थात् अहिंसा, सत्य आदि की) सत्ता सबल तर्क द्वारा सिद्ध नहीं तब यम आदि का (अर्थात् यम, नियम आदि का) पालन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org