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अष्टक-१३
द्वारा प्रमाण लक्षण का निश्चय होता है उसी प्रकार लक्षण बिना किए गए प्रमाण के द्वारा-प्रमाण विषय का भी निश्चय हो जाना चाहिए । और यदि माना जाए कि प्रमाण का लक्षण प्रमाण द्वारा निश्चय किए बिना कहा जाएगा तो हमारा उत्तर है कि इस प्रकार प्रमाण-लक्षण कहना मनमानी करना है (अथवा बुद्धि का अंधापन है)।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि प्रमेय का स्वरूप जानने के लिए प्रमाण के उपयोग करना निश्चय ही आवश्यक है लेकिन प्रमाण का स्वरूप जानना आवश्यक नहीं; वरना तो कहा जा सकेगा कि प्रमाण का स्वरूप जानने के लिए भी प्रमाण का उपयोग करना ही नहीं, प्रमाण का स्वरूप जानना भी आवश्यक है । लेकिन 'प्रमाण का स्वरूप जानने के लिए प्रमाण का स्वरूप जानना आवश्यक है' यह कहना एक बेतुकी बात है । और यदि प्रमाण का स्वरूप जानना, न प्रमाण का स्वरूप जानने के लिए आवश्यक है, न प्रमेय का स्वरूप जानने के लिए तो प्रमाण का स्वरूप जानना एक व्यर्थ का काम है।
तस्माद्यथोदितं वस्तु विचार्य रागवर्जितैः ।
धर्मार्थिभिः प्रयत्नेन तत इष्टार्थसिद्धिम् ॥८॥
इसलिए राग-शून्य धर्माभिलाषी व्यक्तियों को चाहिए कि वे उपरोक्त विषय-वस्तु पर ही (अर्थात् धर्म के साधनों के स्वरूप पर ही) प्रयत्नपूर्वक विचार करें क्योंकि उसी से उनके अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि होगी ।
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