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धर्मवाद
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धर्माभिलाषी व्यक्तियों को चाहिए कि वे इसी प्रश्न पर विचार करें कि धर्म के उक्त साधन किस चिन्तनपरंपरा के मतानुसार वास्तविक अर्थ में संभव सिद्ध होते हैं तथा किस चिन्तन-परंपराओं के अनुसार नहीं, और यह विचार किया जाना चाहिए उन उन चिन्तन परंपराओं की अपनी अपनी प्रतिपादन-शैली का अनुसरण करते हुए । दूसरी ओर, प्रमाण आदि के लक्षण पर विचार करना (धर्माभिलाषी व्यक्तियों के लिए) उचित नहीं और वह इसलिए कि उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । जैसा कि महामति का कहना है :
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र के मतानुसार सद्-वाद का विषय होना चाहिए आचारशास्त्रीय मान्यताएँ (तथा तत्संबंधित सत्ताशास्त्रीय मान्यताएँ) न कि प्रमाणशास्त्रीय मान्यताएँ । टीकाकार के कथनानुसार यहाँ 'महामंति' से आचार्य हरिभद्र का आशय आचार्य सिद्धसेन से है ।
प्रसिद्धानि प्रमाणानि व्यवहारश्च तत्कृतः ।
प्रमाणलक्षणस्योक्तौ ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥५॥
प्रमाण कौन कौन से हैं यह बात सब लोगों के निकट प्रसिद्ध हैं और इन प्रमाणों की सहायता से दैनंदिन व्यवहार भी चल ही जाता है; ऐसी दशा में हमारी समझ में नहीं आता कि प्रमाण का लक्षण कहने से किसी का क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ।"
प्रमाणेन विनिश्चित्य तदुच्येत न वा ननु । अलक्षितात् कथं युक्ता नान्यतोऽस्य विनिश्चितिः ॥६॥
सत्यां चास्यां तदुक्त्या किं तद्वद विषयनिश्चितेः ।
तत एवाविनिश्चित्य तस्योक्तिया॑न्थ्यमेव हि ॥७॥
आखिरकार, हम पूछते हैं कि यह प्रमाण का लक्षण प्रमाण द्वारा निश्चय करके कहा जाएगा या प्रमाण द्वारा निश्चय किए बिना ही । (यदि माना जाए कि प्रमाण का लक्षण प्रमाण द्वारा निश्चय करके कहा जाएगा तो हम पूछते हैं कि) जिस प्रमाण का अभी लक्षण ही नहीं हुआ उसके द्वारा प्रमाण-लक्षण का निश्चय किया जाना कैसे उचित होगा । और यदि माना जाए कि ऐसा हो सकता है (अर्थात् यह कि जिस प्रमाण का लक्षण नहीं हुआ उसके द्वारा प्रमाण-लक्षण का निश्चय हो सकता है) तो हम पूछेगे कि तब प्रमाण का लक्षण कहने से लाभ क्या ?-क्योंकि तब तो जिस प्रकार लक्षण बिना किए गए प्रमाण के
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