SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मवाद ४३ धर्माभिलाषी व्यक्तियों को चाहिए कि वे इसी प्रश्न पर विचार करें कि धर्म के उक्त साधन किस चिन्तनपरंपरा के मतानुसार वास्तविक अर्थ में संभव सिद्ध होते हैं तथा किस चिन्तन-परंपराओं के अनुसार नहीं, और यह विचार किया जाना चाहिए उन उन चिन्तन परंपराओं की अपनी अपनी प्रतिपादन-शैली का अनुसरण करते हुए । दूसरी ओर, प्रमाण आदि के लक्षण पर विचार करना (धर्माभिलाषी व्यक्तियों के लिए) उचित नहीं और वह इसलिए कि उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । जैसा कि महामति का कहना है : (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र के मतानुसार सद्-वाद का विषय होना चाहिए आचारशास्त्रीय मान्यताएँ (तथा तत्संबंधित सत्ताशास्त्रीय मान्यताएँ) न कि प्रमाणशास्त्रीय मान्यताएँ । टीकाकार के कथनानुसार यहाँ 'महामंति' से आचार्य हरिभद्र का आशय आचार्य सिद्धसेन से है । प्रसिद्धानि प्रमाणानि व्यवहारश्च तत्कृतः । प्रमाणलक्षणस्योक्तौ ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥५॥ प्रमाण कौन कौन से हैं यह बात सब लोगों के निकट प्रसिद्ध हैं और इन प्रमाणों की सहायता से दैनंदिन व्यवहार भी चल ही जाता है; ऐसी दशा में हमारी समझ में नहीं आता कि प्रमाण का लक्षण कहने से किसी का क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ।" प्रमाणेन विनिश्चित्य तदुच्येत न वा ननु । अलक्षितात् कथं युक्ता नान्यतोऽस्य विनिश्चितिः ॥६॥ सत्यां चास्यां तदुक्त्या किं तद्वद विषयनिश्चितेः । तत एवाविनिश्चित्य तस्योक्तिया॑न्थ्यमेव हि ॥७॥ आखिरकार, हम पूछते हैं कि यह प्रमाण का लक्षण प्रमाण द्वारा निश्चय करके कहा जाएगा या प्रमाण द्वारा निश्चय किए बिना ही । (यदि माना जाए कि प्रमाण का लक्षण प्रमाण द्वारा निश्चय करके कहा जाएगा तो हम पूछते हैं कि) जिस प्रमाण का अभी लक्षण ही नहीं हुआ उसके द्वारा प्रमाण-लक्षण का निश्चय किया जाना कैसे उचित होगा । और यदि माना जाए कि ऐसा हो सकता है (अर्थात् यह कि जिस प्रमाण का लक्षण नहीं हुआ उसके द्वारा प्रमाण-लक्षण का निश्चय हो सकता है) तो हम पूछेगे कि तब प्रमाण का लक्षण कहने से लाभ क्या ?-क्योंकि तब तो जिस प्रकार लक्षण बिना किए गए प्रमाण के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy