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अष्टक-११
पथ की बाधा नहीं मानना चाहिए—उसी प्रकार जैसे रोग की चिकित्सा को पथ की बाधा नहीं मानना चाहिए (यद्यपि इस चिकित्सा में थोड़ी सी शरीरपीड़ा कभी कहीं होती है) ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका में आए 'क्वचित्' इस शब्द के प्रयोग से जाना जा सकता है कि आचार्य हरिभद्र शारीरिक पीड़ा को तप का अनिवार्य भाग नहीं मानते । और जो शारीरिक पीडा किसी तप में कभी नहीं होती है उसके संबंध में उनकी समझ है कि तपस्वी उससे दुःखित नहीं होता ।
दृष्टा चेष्टार्थसंसिद्धौ कायपीडा ह्यदुःखदा ।
रत्नादिवणिगादीनां तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥७॥
फिर हम देखते ही हैं कि रत्न आदि के व्यापारी आदि को होने वाली शरीरपीड़ा उन्हें दुःख नहीं पहुँचाती और वह तब जब वह उनकी अभीष्ट-सिद्धि करा चुकी होती है—ठीक ऐसी ही बात यहाँ भी (अर्थात् तप के संबंध में भी) समझनी चाहिए ।
(टिप्पणी) 'रत्नादिवणिगादि' का प्रस्तुत दृष्टान्त पिछली कारिका के 'व्याधिक्रिया' के दृष्टान्त के ठीक समान है। टीकाकार के कथनानुसार प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र का इंगित रत्नवणिक् संबंधी एक कथाविशेष की ओर है ।
विशिष्ट-ज्ञान-संवेग-शमसारमतस्तपः ।
क्षायोपशमिकं ज्ञेयमव्याबाधसुखात्मकम् ॥८॥
अतः तप के संबंध में समझना चाहिए कि वह विशिष्ट ज्ञान से, संसार के प्रति भय की भावना से (अथवा मोक्ष के प्रति अभिलाषा की भावना से) तथा मन की शान्ति से भरा-पूरा होता है, यह कि वह किन्हीं 'कर्मो' की (अर्थात् 'चारित्रमोहनीय' नाम वाले 'कर्मों' की) वेग-शान्ति के फलस्वरूप उत्पन्न होता है, तथा यह कि वह बाधा-हीन सुख रूप होता है ।
(टिप्पणी) जैन कर्म-शास्त्र की परिभाषानुसार चरित्र-मोहनीय 'कर्म' वे हैं जिनका वेग शान्त होने पर ही एक व्यक्ति के लिए सदाचरण की दिशा में आगे बढ़ना संभव होता है ।
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