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तप
महातपस्विनश्चैवं त्वन्नीत्या नारकादयः ।
शमसौख्यप्रधानत्वाद् योगिनस्त्वतपस्विनः ॥३॥ फिर इस प्रकार आपकी मान्यता स्वीकार करने पर (अर्थात् तप को दुःखरूप मानने पर) नरकवासी प्राणी आदि महातपस्वी ठहरेंगे तथा योगी लोग अ-तपस्वी ठहरेंगे, और वह इसलिए कि योगी लोग शान्ति रूपी सुख से भरेपूरे होते हैं ।
युक्त्यागमबहिर्भूतमतस्त्याज्यमिदं बुधैः ।।
अशस्तध्यानजननात् प्राय आत्मापकारकम् ॥४॥
अतः बुद्धिमानों को चाहिए कि वे युक्ति तथा शास्त्र दोनों के विपरीत जाने वाले इस तप को (अर्थात् दुःख रूप तप को) तिलांजलि दें, उस तप को जो अशोभन प्रकार के ध्यान को प्रायः जन्म देकर आत्मा का अपकारी सिद्ध होता है ।"
मनइन्द्रिययोगानामहानिश्चोदिता जिनैः ।
यतोऽत्र तत् कथं त्वस्य युक्ता स्याद् दुःखरूपता ॥५॥ (इस पर हमारा उत्तर है) पूज्य शास्त्रकारों का कहना है कि तप के अवसर पर एक व्यक्ति का न तो मन खिन्न हो रहा होता है, न उसकी इन्द्रियाँ और न ही उसके कोई क्रिया-कलाप, और जब बात ऐसी है तब तप को दुःख रूप मानना कैसे उचित ?
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि तप के अवसर पर एक व्यक्ति का मन तथा उसकी इन्द्रियाँ स्वस्थ बनी रहनी चाहिए और साथ ही उसके शारीरिक, वाचिक, मानसिक क्रिया-कलाप भी स्वस्थ भाव से सम्पन्न होते रहने चाहिए । उनकी दृष्टि में इस प्रकार की स्वस्थता ही दुःख-शून्यता है। 'योग' का अर्थ 'शारीरिक, वाचिक, मानसिक क्रिया-कलाप' यह जैनपरंपरा ही करती है।
याऽपि चानशनादिभ्यः कायपीडा मनाक् क्वचित् ।
व्याधिक्रियासमा साऽपि नेष्टसिद्ध्याऽत्र बाधनी ॥६॥
और जो (तप के अवसर पर) अनशन आदि से थोड़ी सी शरीर-पीड़ा कभी कहीं होती है वह भी क्योंकि अभीष्ट-सिद्धि कराती है इसलिए उसे भी
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