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तप
दुःखात्मकं तपः केचिन्मन्यन्ते तन्न युक्तिमत् । कर्मोदयस्वरूपत्वाद् बलीवर्दादिदुःखवत् ॥१॥
(तप के संबंध में किसी की शंका है ) " कुछ लोग तप को दुःख रूप मानते हैं लेकिन उनका ऐसा मानना उचित नहीं क्योंकि दुःख तो एक 'कर्म'-विशेष का (अर्थात् 'असातवेदनीय' नाम वाले 'कर्म' का) उदय रूप है - उसी प्रकार जैसे बैल आदि को होने वाला दुःख ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत वादी की शंका का आशय यह है कि दुःखानुभूति तप का भाग नहीं होनी चाहिए । इस शंका के उत्तर में आचार्य हरिभद्र कहेंगे कि यद्यपि थोड़ी-बहुत दुःखानुभूति तप का भाग कभी कभी होती है लेकिन वह उसका सार-भाग नहीं । प्रस्तुत अष्टक की एक दूसरी व्याख्या के अनुसार इस कारिका में आचार्य हरिभद्र पूर्वपक्षी का मत प्रस्तुत कर रहे हैं (और यह मत या तो 'दुःखात्मकं तपः' केवल इतना है या 'दुःखात्मकं तपः, कर्मोदयस्वरूपत्वात्, बलीवर्दादिदुःखवत् ' इतना ) । उस दशा में कहना होगा कि पूर्वपक्षी दुःखानुभूति को तप का सार भाग स्वयं मान रहा है — लेकिन तब भी आचार्य हरिभद्र का कहना यही होगा कि यद्यपि थोड़ी बहुत दुःखानुभूति तप का भाग कभी होती है लेकिन वह तप का सार - भाग नहीं । 'असातवेदनीय कर्म' जैन कर्म - शास्त्र का एक पारिभाषिक शब्द है और यह इस 'कर्म' का द्योतक है जिसके फलस्वरूप एक व्यक्ति को दुःख की अनुभूति होती है ।
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सर्व एव च दुःख्येवं तपस्वी संप्रसज्यते । विशिष्टस्तद्विशेषेण सुधनेन धनी यथा ॥२॥
और ऐसी दशा में (अर्थात् तप को दुःख रूप मानने पर ) सभी दुःखी तपस्वी ठहरेंगे तथा विशिष्ट तपस्वी वह व्यक्ति ठहरेगा जिसका दुःख विशेष कोटि का हो, उसी प्रकार जैसे विशिष्ट धनी वह व्यक्ति कहलाता है जिसका धन प्रचुर मात्रा वाला हो ।
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