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वैराग्य
भूयांसो नामिनो बद्धा बाह्येनेच्छादिना ह्यमी । आत्मानस्तद्वशात् कष्टं भवे तिष्ठन्ति दारुणे ॥६॥ एवं विज्ञाय तत्त्यागविधिस्त्यागश्च सर्वथा । वैराग्यमाहुः सज्ज्ञानसंगतं तत्त्वदर्शिनः ॥७॥
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'आत्माएँ अनेक हैं', 'आत्माएँ परिवर्तनशील हैं', 'आत्माएँ इच्छा (अर्थात् राग) आदि से (अर्थात् इच्छा आदि के कारणभूत 'कर्मों' से) – जो इच्छा आदि इन आत्माओं से पृथक् पदार्थ हैं—बद्ध होती हैं तथा इस प्रकार बद्ध होने के फलस्वरूप दारुण संसार-चक्र में कष्टपूर्वक भ्रमण करती हैं— इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् जो व्यक्ति इच्छा आदि के त्याग की तैयारी तथा इच्छा आदि का सर्वथा त्याग करता है उसके वैराग्य को तत्त्ववेत्ताओं ने ' श्रेष्ठज्ञान से संयुक्त' वैराग्य कहा है ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिकाओं में गिनाई गई सभी दार्शनिक मान्यताएँ जैन परंपरा की अपनी मान्यताएँ है और इसीलिए इन मान्यताओं को स्वीकार करने के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले वैराग्य को आचार्य हरिभद्र 'सज्ज्ञानसंगत ' कह रहे हैं । इच्छा आदि के कारणभूत 'कर्मों' को आत्मा से बाह्य (अर्थात् पृथक् ) कहने के पीछे आशय यह है कि ये 'कर्म' एक प्रकार के भौतिक पदार्थ हैं, ('कर्मों' को एक प्रकार का भौतिक पदार्थ मानना जैन - परंपरा की एक अपनी विशिष्टता है ) ।
एतत्तत्त्वपरिज्ञानान्नियमेनोपजायते ।
यतोऽत्र साधनं सिद्धेरेतदेवोदितं जिनैः ॥८ ॥
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क्योंकि इस प्रकार का वैराग्य तत्त्व - ज्ञान के फलस्वरूप अवश्य ही उत्पन्न होता है इसलिए पूज्य शास्त्रकारों का कहना है कि मुक्ति का साधन सिद्ध होने वाला वैराग्य यही है ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका से जाना जा सकता है कि आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में मोक्ष का कारण सिद्ध होने वाला वैराग्य वही है जो उन दार्शनिक मान्यताओं को स्वीकार करके चले जिन्हें जैन परंपरा स्वीकार करती है ।
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