SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टक-१० आधार पर कहा जा सकता है कि उसके अवसर पर एक व्यक्ति अपनी रुचि के क्रिया-कलापों से विरत हो रहा होता है, लेकिन क्योंकि अपनी रुचि के क्रिया-कलापों से इस व्यक्ति के इस प्रकार विरत होने का कारण सद्बुद्धि नहीं विवशता है उसका यह तथा-कथित वैराग्य सच्चा वैराग्य नहीं । एको नित्यस्तथाऽबद्धः क्षय्यसदेह सर्वथा । आत्मेति निश्चयाद् भूयो भवनैर्गुण्यदर्शनात् ॥४॥ तत्त्यागायोपशान्तस्य सद्वृत्तस्यापि भावतः । वैराग्यं तद्गतं यत् तन्मोहगर्भमुदाहृतम् ॥५॥ ____ 'आत्मा सर्वथा एक है', 'आत्मा सर्वथा अपरिवर्तिष्णु है', 'आत्मा सर्वथा अ-बद्ध (अर्थात् 'कर्म'-बद्ध नहीं) है', 'आत्मा सर्वथा विनाशशील (अर्थात् क्षणिक) है', 'आत्मा सर्वथा है ही नहीं' इत्यादि प्रकार का विश्वास उदय होने के फलस्वरूप और फिर संसार की निर्गुणता को देखने के फलस्वरूप जब एक व्यक्ति इस संसार को त्याग करने के उद्देश्य से अपने मन को शान्त बनाता है तब उस व्यक्ति का यह संसार-विषयक वैराग्य-भले ही वह व्यक्ति सच्चे अर्थ में सदाचारी क्यों न हो—'मोह-गर्भित' वैराग्य कहलाता है । (टिप्पणी) प्रस्तुत कारिकाओं में आचार्य हरिभद्र कतिपय ऐसी दार्शनिक मान्यताएँ गिना रहे हैं जिन्हें स्वीकार करने पर भी संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न होना संभव है, लेकिन क्योंकि स्वयं आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में ये दार्शनिक मान्यताएँ स-दोष हैं वे इस प्रकार के वैराग्य को 'मोहगर्भित' कह रहे हैं । उदाहरण के लिए, 'आत्मा सर्वथा एक तथा अपरिवत्तिष्णु है' यह मान्यता अद्वैत वेदान्तियों की है, ‘आत्मा सर्वथा अ-बद्ध है' यह मान्यता सांख्यमतानुयायियों की है, 'आत्मा सर्वथा क्षणिक है' यह मान्यता बौद्धों की है (बशर्ते कि यहाँ इतना जोड़ दिया जाए कि बौद्ध विचारक आत्मा का निर्देश 'चित्त' अथवा 'मन' इस नाम से किया करते हैं), 'आत्मा सर्वथा है ही नहीं' इसे भी एक बौद्ध मान्यता माना जा सकता है (बशर्ते कि यहाँ इतना जोड़ दिया जाए कि उसी तत्त्व को जिसे अन्य विचारक 'आत्मा' कहते हैं बौद्ध विचारक 'चित्त' अथवा 'मन' कहते हैं )* ★ अथवा कहा जा सकता है कि 'आत्मा सर्वथा है ही नहीं' यह अजित केशकम्बली जैसे उन विचारकों की मान्यता है जो भौतिकवादी होते हुए भी गृह-त्यागी भिक्षु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy