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________________ १० . वैराग्य आर्तध्यानाख्यमेकं स्यान्मोहगर्भं तथाऽपरम् । सज्ज्ञानसंगतं चेति वैराग्यं त्रिविधं स्मृतम् ॥१॥ वैराग्य तीन प्रकार का माना गया है—एक वह जिसका नाम है 'आर्त्तध्यान' (शब्दार्थ, दुःखित ध्यान), दूसरा वह जो मोह-गर्भित है, तीसरा वह जो श्रेष्ठ ज्ञान से संयुक्त है। (टिप्पणी) जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जैन-परंपरा ध्यान को अशोभन तथा शोभन दो प्रकार का मानती है । आर्त्त-ध्यान अशोभन ध्यान के दो उप-विभागों में से एक है । इसका स्वरूप अगली दो कारिकाओं में स्पष्ट होगा (और उसके बाद वैराग्य के शेष दो प्रकारों का वर्णन किया जाएगा) । इष्टेतरवियोगादिनिमित्तं प्रायशो हि यत् । यथाशक्त्यपि हेयादावप्रवृत्त्यादिवर्जितम् ॥२॥ उद्वेगकृद्विषादाढ्यमात्मघातादिकारणम् । आर्तध्यानं ह्यदो मुख्यं वैराग्यं लोकतो मतम् ॥३॥ जिस वैराग्य का कारण प्रायः इष्ट-अनिष्ट से वियोग आदि (अर्थात् वियोग-संयोग) हुआ करते हैं, जो वैराग्य एक व्यक्ति को त्याग करने योग्य आदि (अर्थात् त्याग करने योग्य, ग्रहण करने योग्य आदि) वस्तुओं के प्रति शक्ति भर भी अप्रवृत्तिशील आदि (अर्थात् अप्रवृत्तिशील, प्रवृत्तिशील आदि) नहीं बनाता, जो वैराग्य एक व्यक्ति के मन में उद्वेग उत्पन्न करता है, जो विषाद से भरा-पूरा होता है, जो आत्म-हत्या आदि का कारण बनता है वह वस्तुतः आर्त्त-ध्यान है लेकिन लोक-व्यवहारवश वैराग्य माना जाता है । (टिप्पणी) वस्तुतः प्रस्तुत प्रकार के आचरण को वैराग्य एक इसी अष्टक-३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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