SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टक ९ 'तत्त्व का संवेदन' रूप ज्ञान उस व्यक्ति को होता है जो अनाकुल क्रियाकलापों वाला है तथा प्रशान्त चित्त वाला है, और उसका यह ज्ञान अपनी विषयभूत वस्तु के संबंध में यह निश्चय करा पाता है कि वह त्याग करने योग्य आदि है (अर्थात् त्याग करने योग्य, ग्रहण करने योग्य अथवा उपेक्षा करने योग्य है ); साथ ही यह ज्ञान यथार्थ होता है तथा ज्ञान व्यक्ति की शक्ति (= क्रियाशील) के अनुसार फलदायी सिद्ध होता है । ३२ (टिप्पणी) जैसा कि अगली कारिका में बतलाया जाएगा, इस तीसरे प्रकार के ज्ञान की मुख्य विशेषता यही है कि यह होने पर एक व्यक्ति भले काम को भला तथा बुरे काम को बुरा मानता हो इतना ही नहीं बल्कि वह भले कामों को करता तथा बुरे कामों से बचता भी है । क्योंकि यह तीसरे प्रकार का ज्ञान ही वस्तु स्वरूप का सच्चा ज्ञान होता है इसलिए इसे ही 'तत्त्वसंवेदन' यह नाम दिया जा रहा है I न्याय्यादौ शुद्धवृत्त्यादि गम्यमेतत् प्रकीर्तितम् । सज्ज्ञानावरणापायं महोदयनिबंधनम् ॥७॥ इस प्रकार के ज्ञान की पहचान बतलाई गई है न्याय्य आदि कामों में (अर्थात् न्याय्य, अन्याय्य आदि कामों में ) शुद्ध क्रिया आदि का होना (अर्थात् शुद्ध क्रिया, क्रिया विरति आदि का होना ); दूसरे, इस ज्ञान में श्रेष्ठ ज्ञान के (अथवा ज्ञान के) आवरण (अर्थात् आवरणभूत 'कर्मों') हटे होते हैं तथा वह मोक्ष का कारण सिद्ध होता है । Jain Education International एतस्मिन् सततं यत्नः कुग्रहत्यागतो भृशम् । मार्गश्रद्धादिभावेन कार्य आगमतत्परैः ॥८ ॥ शास्त्र पर दृढ़ विश्वास रखने वाले व्यक्तियों को चाहिए कि वे दुराग्रह का अत्यन्त त्याग करते हुए तथा मोक्ष मार्ग में श्रद्धा आदि की भावना रखते हुए इसी प्रकार के ज्ञान की ( अर्थात् 'तत्त्व का संवेदन' रूप ज्ञान की ) प्राप्ति के प्रति सतत प्रयत्न करें । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy