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वाद (शास्त्रार्थ )
शुष्कवादो विवादश्च धर्मवादस्तथाऽपरः । इत्येष त्रिविधो वादः कीर्तितः परमर्षिभिः ॥ १ ॥
महर्षियों ने वाद तीन प्रकार का बतलाया - एक शुष्क वाद, दूसरा विवाद और तीसरा धर्मवाद ।
(टिप्पणी) वाद के इन तीनों प्रकारों का वर्णन आगामी कारिकाओं में मिलेगा ——– जिससे इस बात का भी आभास हो जाएगा कि इनके ये ये नाम क्यों हैं ।
अत्यन्तमानिना सार्धं क्रूरचित्तेन च दृढम् धर्मद्विष्टेन मूढेन शुष्कवादस्तपस्विनः ॥२॥
अत्यन्त अभिमानी, क्रूरचित्त, मूर्ख तथा पक्के धर्मद्वेषी किसी व्यक्ति के साथ होने वाला एक तपस्वी का वाद 'शुष्क - वाद' कहलाता है ।
विजयेऽस्यातिपातादि लाघवं तत्पराजयात् ।
धर्मस्येति द्विधाऽप्येष तत्त्वतोऽनर्थवर्धनः ॥३॥
ऐसे वाद में यदि तपस्वी की विजय हो तब ( पराजित ) प्रतिवादी की मृत्यु आदि हो जाती है और यदि प्रतिवादी के हाथों तपस्वी की पराजय हो तब धर्म की प्रतिष्ठा गिरती है— इस प्रकार दोनों ही दशाओं में यह वाद वस्तुतः अनर्थ की वृद्धि करता है ।
लब्धिख्यात्यर्थिना तु स्याद् दुःस्थितेनाऽमहात्मना । छलजातिप्रधानो यः स विवाद इति स्मृतः ॥४॥
लाभ एवं ख्याति के इच्छुक, अस्वस्थचित्त (अथवा दरिद्र ) तथा अनुदार किसी व्यक्ति के साथ होने वाला वाद - वह वाद जिसमें छल तथा जाति की (अर्थात् चाल-बाजियों तथा खोखले आरोपों की ) भरमार हो— ' विवाद'
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