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अष्टक-७
(टिप्पणी) प्रस्तुत व्यक्ति को जिस शास्त्र-वचन का उल्लंघन करने वाला कहा जा रहा है वह टीकाकार के मतानुसार यह है कि "किसी को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे दूसरों के चित्त में उद्वेग आदि उत्पन्न हों"। लेकिन यह शास्त्र-वचन यह भी हो सकता है कि "एक साधु एकान्त में भोजन करे" ।
शास्त्रार्थश्च प्रयत्नेन यथाशक्ति मुमुक्षुणा ।
अन्यव्यापारशून्येन कर्तव्यः सर्वदैव हि ॥७॥
और शास्त्र-वचन का पालन एक मोक्षार्थी व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक, सदैव, यथाशक्ति तथा सब काम छोड़ कर करना चाहिए ।
एवं ह्युभयथाऽप्येतद् दुष्टं प्रकटभोजनम् ।
यस्मान्निदर्शितं शास्त्रे ततस्त्यागोऽस्य युक्तिमान् ॥८॥ इस प्रकार क्योंकि शास्त्र खुले में भोजन करने को दोनों अवस्थाओं में (अर्थात् याचकों को कुछ देने न देने दोनों की अवस्थाओं में ) दोष-दूषित ठहराता है इसलिए ऐसे भोजन का त्याग ही युक्तियुक्त है ।
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