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प्रत्याख्यान (पाप-विरति का संकल्प)
द्रव्यतो भावतश्चैव प्रत्याख्यानं द्विधा मतम् ।
अपेक्षादिकृतं ह्याद्यमतोऽन्यच्चरमं मतम् ॥१॥ प्रत्याख्यान दो प्रकार का बतलाया गया है-एक द्रव्य-प्रत्याख्यान, दूसरा भाव-प्रत्याख्यान । जो प्रत्याख्यान किसी अपेक्षा (= सांसारिक कामना) आदि के कारण किया जाए वह इनमें से पहले प्रकार का है तथा जो अपेक्षा आदि के बिना किया जाए वह दूसरे प्रकार का ।
(टिप्पणी) 'प्रत्याख्यान' को (अर्थात् पाप-विरति के संकल्प को) जैन-परंपरा में एक धर्म-कृत्य के रूप में गिना गया है और इस धर्म-कृत्य के अवसर पर उपयोग में लाए जाने के लिए एक विशेष प्रकार के 'प्रत्याख्यान-सूत्रों' की रचना यहाँ हुई है । ऐसी दशा में प्रत्याख्यान-सूत्रों का उच्चारण भर कर देना द्रव्य-प्रत्याख्यान हुआ तथा मनःशुद्धिपूर्वक इन सूत्रों का उच्चारण करना भाव-प्रत्याख्यान हुआ । प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र इसी बात को थोड़ा घुमाकर कह रहे हैं, उनका कहना है कि अपेक्षा आदि (चार) दोषों के उपस्थित रहते किया जाने वाला प्रत्याख्यान द्रव्य-प्रत्याख्यान है तथा इन दोषों के उपस्थित न रहते किया जाने वाला प्रत्याख्यान भाव-प्रत्याख्यान । अपेक्षा आदि (चार) दोष कौन से हैं यह आगामी कारिकाओं से जाना जा सकेगा ।
अपेक्षा चाविधिश्चैवापरिणामस्तथैव च ।
प्रत्याख्यानस्य विघ्नास्तु वीर्याभावस्तथाऽपरः ॥२॥ प्रत्याख्यान के विघ्न निम्नलिखित (चार) हैं : किसी अपेक्षा का होना, विधिपूर्वकता का न होना, अनुरूप मनोभावना का न होना, प्रयत्न का न होना।
(टिप्पणी) यहाँ 'अविधि' का अर्थ है 'प्रत्याख्यान के संबंध में शास्त्र द्वारा बतलाई गई विधि का पालन न करना । यह कहना भी कदाचित् अनुचित न होगा कि द्रव्य-प्रत्याख्यान का मुख्य दोष 'अ-परिणाम' है ।
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