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________________ एकान्त भोजन (टिप्पणी) ध्यान देने की बात है कि मोक्षवादी प्रत्येक विचारक के लिए यह कहना आवश्यक हो जाता है कि एक व्यक्ति शुभ 'कर्मों के बंध से ठीक उसी प्रकार बचे जैसे अशुभ 'कर्मो' के बंध से—क्योंकि इन दोनों ही प्रकार के 'कर्म'-बंध का फल पुनर्जन्म होता है (भले ही शुभ 'कर्म' बंध का फल उत्कृष्ट पुनर्जन्म हो तथा अशुभ 'कर्म-बंध का फल निकृष्ट पुनर्जन्म)। प्रायो न चानुकम्पावांस्तस्यादत्वा कदाचन । तथाविधस्वभावत्वाच्छक्नोति सुखमासितुम् ॥४॥ उसे (अर्थात् माँगने वाले दीन आदि को) कुछ दिए बिना चैन से बैठ सकना अधिकांश दयालु व्यक्तियों के लिए कभी संभव नहीं होता और वह इसलिए कि इन व्यक्तियों का ऐसा स्वभाव ही है (अर्थात् इन व्यक्तियों का यह स्वभाव ही है कि वे दीन आदि पर दया करते हैं) । अदानेऽपि च दीनादेरप्रीतिर्जायते ध्रुवम् । ततोऽपि शासनद्वेषस्ततः कुगतिसन्ततिः ॥५॥ __ और यदि (माँगने वाले) इन दीन आदि को कुछ नहीं दिया जाए तो उनका चित्त अवश्य उद्विग्न होता है, इस उद्वेग के फलस्वरूप उनके मन में शास्त्र के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है और इस द्वेष के फलस्वरूप उन्हें आगामी जन्मों में नीच योनियों के प्रवाह में बहना पड़ता है। (टिप्पणी) एक साधु से खाना न मिलने पर याचकों के मन में शास्त्र के प्रति द्वेष इसलिए उत्पन्न होता है कि वे देखते हैं कि जो साधु इस समय उन्हें खाना नहीं दे रहा है वही तो शास्त्र का प्रवक्ता बनकर उनके सामने आता है। निमित्तभावतस्तस्य सत्युपाये प्रमादतः । शास्त्रार्थबाधनेनेह पापबंध उदाहृतः ॥६॥ इस प्रकार उपाय संभव होते हुए भी केवल प्रमादवश शास्त्रवचन का उल्लंघन करने वाले प्रस्तुत व्यक्ति के संबंध में (अर्थात् एकान्त में भोजन न करने वाले एक साधु के संबंध में ) कहा गया है कि वह अशुभ 'कर्मों का बंध करता है और वह इसलिए कि वह दीन आदि की उक्त दुर्दशा में निमित्त कारण बनता है)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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