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________________ ७ एकान्त भोजन सर्वारंभनिवृत्तस्य मुमुक्षोर्भावितात्मनः । पुण्यादिपरिहाराय मतं प्रच्छन्नभोजनम् ॥१॥ सब पाप-क्रियाओं को छोड़ देने वाले, शुभ भावनाओं से भरे हुए मन वाले, मोक्ष की अभिलाषा वाले (अर्थात् प्रव्रज्या ग्रहण कर चुकने वाले) एक व्यक्ति को चाहिए कि वह एकान्त में भोजन करे ताकि वह पुण्य आदि से (अर्थात् पुण्य तथा पाप से) बचा रहे । (टिप्पणी) आगामी कारिकाओं से स्पष्ट होगा कि प्रस्तुत प्रसंग में पुण्य तथा पाप का अवसर किस प्रकार से उपस्थित होता है— जिन पुण्य तथा पाप से बचने के लिए एक साधु को आदेश दिया जा रहा है कि वह एकान्त में भोजन करे । यहाँ आए 'सर्वारंभनिवृत्ति' इस शब्द का अर्थ उसी प्रकार समझना चाहिए जैसे कारिका ५ / २ में आए 'सदानारंभी' इस शब्द का । भुञ्जानं वीक्ष्य दीनादिर्याचते क्षुत्प्रपीडितः । तस्यानुकम्पया दाने पुण्यबंधः प्रकीर्तितः ॥२॥ एक व्यक्ति को खाते देखकर भूख से पीड़ित दीन आदि उससे (खाना) माँगने लगते हैं, और यह व्यक्ति यदि कृपापूर्वक (इन दीन आदि को खाना) दे बैठता है तो वह शुभ 'कर्मों' का बंध ( = अर्जन) करता है ऐसा शास्त्र का कहना है । भवहेतुत्वतश्चायं नेष्यते मुक्तिवादिनाम् । पुण्यापुण्यक्षयान्मुक्तिरिति शास्त्रव्यवस्थितेः ॥३॥ Jain Education International लेकिन क्योंकि शुभ 'कर्मों' का बंध पुनर्जन्म का कारण बनता है इसलिए मोक्षवादी (अर्थात् मोक्षार्थी) व्यक्ति ऐसा 'कर्म' - बंध चाहते नहीं । हमारे कथन का आधार शास्त्र की यह व्यवस्था है कि मोक्ष की प्राप्ति शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार के 'कर्मों' का नाश होने से होती है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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