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अष्टक - ६
गृहस्थ किसी साधु को भिक्षा देकर पुण्य प्राप्त कर सकेगा, लेकिन साधु गृहस्थ से भिक्षा प्राप्त न करे और गृहस्थ साधु को भिक्षा देकर पुण्य प्राप्त न करे ये दोनों ही असंभव बातें हैं ।
विभिन्नं देयमाश्रित्य स्वभोग्याद्यत्र वस्तुनि । संकल्पनं क्रियाकाले तद् दुष्टं विषयोऽनयोः ॥६॥
(इस पर हमारा उत्तर है) अपने द्वारा उपभोग की जाने वाली वस्तु (अर्थात् भोजन आदि) से अतिरिक्त किसी वस्तु को तैयार करते समय जब संकल्प किया जाए कि वह (भिक्षार्थी को) दी जाने के लिए है तब वह संकल्प उक्त दोनों प्रसंगों में (अर्थात् एक साधु द्वारा ग्रहण की जाने वाली भिक्षा के प्रसंग में तथा पुण्य के उद्देश्य से तैयार की गई वस्तु के प्रसंग में) दोषदूषित सिद्ध होता है ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि एक गृहस्थ को चाहिए कि वह अपने लिए तैयार किए गए भोजन आदि में से ही भिक्षार्थियों का भी भाग निकाल दे लेकिन वह भिक्षार्थियों के लिए विशेषरूप से भोजन आदि तैयार न कराए । इसी प्रकार के भोजन आदि को भिक्षा में देने से इस गृहस्थ को पुण्य प्राप्त होगा तथा इसी प्रकार के भोजन आदि को भिक्षा में लेना एक साधु के लिए उचित है ।
स्वोचिते तु यदारंभे तथा संकल्पनं क्वचित् । न दुष्टं शुभभावत्वात् तच्छुद्धाऽपरयोगवत् ॥७॥
दूसरी ओर, जब अपने योग्य (अर्थात् अपने द्वारा की जाने वाली) किसी वस्तु के संबंध में उक्त प्रकार का संकल्प किया जाता है (अर्थात् यह संकल्प कि इस वस्तु का एक भाग भिक्षार्थी को दिया जाने के लिए है) तब वह संकल्प दोष- दूषित नहीं, क्योंकि ऐसा संकल्प तो मनः शुद्धि रूप है— ठीक उसी प्रकार जैसे कि इस संबंध में किये गये अन्य शुद्ध क्रिया-कलाप । (टिप्पणी) भिक्षादान आदि शोभन कामों को करते समय मनः शुद्धि कितनी आवश्यक है इस बात की याद पाठक को आचार्य हरिभद्र यही जताने के लिए दिलाते हैं कि मनः शुद्धिपूर्वक किया गया भिक्षादान आदि ही सच्चा — पारिभाषिक शब्दावली में, 'भावतः किया गया' - भिक्षादान आदि है । 'इस संबंध में किए गए अन्य क्रिया-कलापों' से आचार्य हरिभद्र का आशय एक गृहस्थ द्वारा किए गए साधु के वंदन, स्वागत-सत्कार आदि से है ।
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