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सर्वसम्पत्करी भिक्षा
किसी प्रकार से नहीं (अर्थात् केवल अपने उद्देश्य से नहीं) ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत वादी की शंका का आशय यह है कि सद्गृहस्थों के घरों से भिक्षा रूप में पाया जाने वाला भोजन अवश्य ही ऐसा होगा कि उसके संबंध में पहले से यह संकल्प किया जा चुका है कि वह भिक्षार्थियों को देने के लिए है।
संकल्पनं विशेषेण यत्रासौ दुष्ट इत्यपि ।
परिहारो न सम्यक् स्याद् यावदर्थिकवादिनः ॥४॥
वही भोजन (भिक्षा की दृष्टि से) दोष-दूषित है जिसे बनाते समय एक विशेष प्रकार से संकल्प किया गया हो (अर्थात् जो भोजन किसी एक साधुविशेष के उद्देश्य से बनाया हुआ हो) यह बचाव भी वह वादी नहीं दे सकता जिसका यह कहना है कि भिक्षार्थी मात्र के उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन भिक्षा में ग्रहण किए जाने के अयोग्य है ।
(टिप्पणी) यहाँ 'यावदर्थिकवादी' का अर्थ किया गया है "यावदर्थिक" भोजन के संबंध में यह कहने वाला व्यक्ति कि वह भिक्षा में ग्रहण किए जाने के योग्य नहीं' और 'यावदार्थिक भोजन' का अर्थ किया गया है 'भिक्षार्थी मात्र के उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन' ।
विषयो वाऽस्य वक्तव्यः पुण्यार्थं प्रकृतस्य च ।
असंभवाभिधानात् स्यादाप्तस्यानाप्तताऽन्यथा ॥५॥ अथवा फिर हमें बतलाया जाना चाहिए कि 'भिक्षार्थी मात्र के उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन भिक्षा में ग्रहण किए जाने के अयोग्य है' इस विधान में आशय किस प्रकार के भोजन से है, साथ ही हमें यह भी बतलाया जाना चाहिए कि जब किसी भोजन के संबंध में कहा जाता है कि वह पुण्य के उद्देश्य से पकाया गया है तब आशय किस प्रकार के भोजन से है। अन्यथा हमें कहना पड़ेगा कि आप जिसे आप्त (अर्थात् प्रामाणिक) व्यक्ति मानते हैं (अर्थात् वह शास्त्रकार जिसने यह आदेश दिया है कि भिक्षार्थी मात्र के उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन भिक्षा में ग्रहण किए जाने के अयोग्य है) वह वस्तुतः आप्त व्यक्ति नहीं और वह इसलिए कि उसने असंभव बात कही है ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत वादी की शंका का आशय यह है कि यदि संकल्पपूर्वक बनाया हुआ भोजन भिक्षा में ग्रहण किए जाने के सर्वथा अयोग्य है तब न तो कोई साधु किसी गृहस्थ से भिक्षा प्राप्त कर सकेगा और न कोई
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