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अग्नि-कर्म (हवन)
कर्मेधनं समाश्रित्य दृढा सद्भावनाहुतिः ।
धर्मध्यानाग्निना कार्या दीक्षितेनाग्निकारिका ॥१॥
एक दीक्षा-प्राप्त (अर्थात् प्रव्रज्या-प्राप्त) व्यक्ति को चाहिए कि वह 'कर्मों' को ईंधन बनाकर, शुभ मनोभावनाओं को आहुति बनाकर तथा धर्मध्यान को अग्नि बनाकर कठोर अग्नि-कर्म (= हवन) में लगे ।
(टिप्पणी) देखा जा सकता है कि प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र केवल यह कह रहे हैं एक व्यक्ति को शुभमनोभावनापूर्वक सम्पादित धर्मध्यान की सहायता से अपने कर्मों का नाश करना चाहिए । लेकिन धर्म-ध्यान की तुलना अग्नि से, शुभ-मनोभावनाओं की तुलना आहुति से तथा 'कर्मों' की तुलना ईंधन से करके वे पाठक के मन पर यह छाप छोड़ना चाहते हैं जैसे मानों यहाँ किसी प्रकार के हवन का वर्णन किया जा रहा है । 'धर्म-ध्यान' जैन-परंपरा का एक पारिभाषिक शब्द है । संक्षेप में जान लेना चाहिए कि यह परंपरा ध्यान को शोभन तथा अशोभन दो प्रकार का मानती हा और फिर अशोभन ध्यान को 'आर्त' एवं 'रौद्र' इन दो उप-विभागों में तथा शोभन ध्यान को 'धर्म' एवं 'शुक्ल' इन दो उप-विभागों में बाँटती है । शुक्ल-ध्यान धर्मध्यान की तुलना में उच्चतर कोटि का है और टीकाकार का कहना है कि यहाँ आचार्य हरिभद्र का आशय धर्म-ध्यान तथा शुक्ल-ध्यान दोनों से है ।
दीक्षा मोक्षार्थमाख्याता ज्ञानध्यानफलं स च ।
शास्त्र उक्तो यतः सूत्रं शिवधर्मोत्तरे ह्यदः ॥२॥
आखिरकार, दीक्षा (अर्थात् प्रव्रज्या) के संबंध में कहा गया है कि वह मोक्ष-प्राप्ति के लिए ली जाती है जबकि मोक्ष के संबंध में शास्त्र का कहना है कि वह ज्ञान तथा ध्यान के फलस्वरूप प्राप्त होती है । यह इसलिए कि "शिवधर्मोत्तर' नाम वाले शास्त्र-ग्रंथ में निम्नलिखित सूत्र आता है :
(टिप्पणी) टीकाकार की सूचनानुसार 'शिवधर्मोत्तर' एक शैव आगम
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