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________________ १२ अष्टक-४ का नाम है । आचार्य हरिभद्र समझते हैं कि प्रस्तुत प्रश्न पर—अर्थात् मोक्षसाधन क्या है इस प्रश्न पर (साथ ही इस प्रश्न पर भी कि सामान्य हवन का -आचार्य हरिभद्र के शब्दों में, द्रव्य-हवन का—फल क्या होता है )--यह आगम उनके अपने मत का समर्थन करता है ।। पूजया विपुलं राज्यमग्निकार्येण सम्पदः । तपः पापविशुद्ध्यर्थं ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम् ॥३॥ "पूजा के फलस्वरूप विशाल राज्य की प्राप्ति होती है तथा अग्निकर्म (= हवन) के फलस्वरूप सम्पत्ति की, तप पाप-प्रक्षालन के लिए किया जाता है तथा मोक्ष दिलाने वाले हैं ज्ञान एवं ध्यान ।" पापं च राज्यसम्पत्सु संभवत्यनघं ततः । न तद्धत्वोरुपादानमिति सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥४॥ क्योंकि राज्य तथा सम्पत्ति की प्राप्ति होने पर पाप होता ही है (अथवा पाप संभव होता ही है) इसलिए राज्य तथा सम्पत्ति के कारणों का (अर्थात् पूजा एवं हवन का) आश्रय लेना निर्दोष नहीं, इस परिस्थिति पर भली भाँति विचार किया जाना चाहिए । विशुद्धिश्चास्य तपसा न तु दानादिनैव यत् । तदियं नान्यथा युक्ता तथा चोक्तं महात्मना ॥५॥ और (राज्य तथा सम्पत्ति की प्राप्ति होने पर होने वाले) इस पाप का प्रक्षालन तप द्वारा होता है दान आदि द्वारा नहीं, अतएव यह दूसरे प्रकार का हवन (अर्थात् वह हवन जिसके फलस्वरूप सम्पत्ति की प्राप्ति होती है) उचित नहीं । इसी प्रकार महात्मा (व्यास) ने भी कहा है : (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि राज्य तथा सम्पत्ति की प्राप्ति पर होने वाले पाप का प्रक्षालन यदि दान आदि द्वारा संभव होता तो सामान्य हवन की-अर्थात् द्रव्य-हवन की-सहायता से सम्पत्ति का अर्जन कदाचित् उपयोगी सिद्ध हो सकता था, और वह इसलिए कि संपत्ति के बल पर दान आदि संभव होते ही हैं । धर्मार्थं यस्य वित्तेहा तस्यानीहा गरीयसी । प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ॥६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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