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पूजा
पूजा की तुलना में ।
संकीर्णैषा स्वरूपेण द्रव्याद् भावप्रसक्तितः ।
पुण्यबंधनिमित्तत्वाद् विज्ञेया स्वर्गसाधनी ॥४॥ इस प्रकार की अष्टपुष्पी पूजा मिश्रित स्वरूप वाली है क्योंकि उसके अवसर पर द्रव्य की (अर्थात् एक भौतिक द्रव्य की) सहायता से भाव की (अर्थात् देवाधिदेव के प्रति भक्ति-भावना की) उत्पत्ति हुआ करती है; इस पूजा के संबंध में समझना है कि वह शुभ 'कर्म'-बंध का कारण बनती है और इसीलिए स्वर्ग-प्राप्ति का साधन सिद्ध होती है ।।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि मनःशुद्धिपूर्वक की गई द्रव्य-पूजा की सच्ची उपयोगिता इस बात में है कि वह मनःशुद्धि के लिए अवसर उपस्थित करती है; इसीलिए वे इसे 'स्वरूपेण संकीर्णा' कह रहे हैं । अगली कारिकाओं में हम उन्हें कहते पाएंगे कि भाव-पूजा स्वयं मनःशुद्धिरूप होती है और इसीलिए उसे सर्वथा (अर्थात् अ-संकीर्ण रूप से') उपादेय माना जाना चाहिए । यहाँ इस बात पर एक बार फिर ध्यान देना चाहिए कि विशेष रूप से शोभन क्रिया-कलापों को आचार्य हरिभद्र दो भागों में बाँटते हैं-एक वे जो शुभ 'कर्म' बंध का कारण बनने के फलस्वरूप स्वर्ग दिलाने वाले सिद्ध होते हैं और दूसरे वे जो 'कर्म' नाश का कारण बनने के फलस्वरूप मोक्ष दिलाने वाले सिद्ध होते हैं (जहाँ तक विशेष रूप से अशोभन क्रिया-कलापों का संबंध है वे नरक दिलाने वाले सिद्ध होते हैं जबकि सामान्य कोटि के शोभन-अशोभन क्रिया-कलाप इसी लोक में अच्छा-बुरा फल दिलाने वाले सिद्ध होते हैं । यहाँ कारण है कि प्रस्तुत अष्टक की पहली कारिका में आचार्य हरिभद्र का अभिप्राय था कि द्रव्य-पूजा स्वर्ग दिलाने वाली सिद्ध होती है तथा भाव-पूजा मोक्ष दिलाने वाली ।
या पुनर्भावजैः पुष्पैः शास्त्रोक्तिगुणसंगतैः । परिपूर्णत्वतोऽम्लानैरत एव सुगंधिभिः ॥५॥ अहिंसा-सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमसंगता । गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥६॥ एभिर्देवाधिदेवाय बहुमानपुरःसरा । दीयते पालनाद्या तु सा वै शुद्धत्युदाहृता ॥७॥
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