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पूजा
अष्टपुष्पी समाख्याता स्वर्गमोक्षप्रसाधनी ।
अशुद्धतरभेदेन द्विधा तत्त्वार्थदर्शिभिः ॥१॥
अष्टपुष्पी (अर्थात् आठ-अथवा अधिक-फूलों से की जाने वाली) पूजा के संबंध में तत्त्ववेत्ताओं ने कहा है कि वह स्वर्ग एवं मोक्ष को दिलाने वाली है तथा वह दो प्रकार की होती है-एक अशुद्ध और दूसरी शुद्ध ।
(टिप्पणी) यहाँ आचार्य हरिभद्र 'अशुद्ध पूजा' के नाम से द्रव्य-पूजा का उल्लेख कर रहे हैं तथा 'शुद्धपूजा' के नाम से भाव-पूजा का, इनमें से पहली स्वर्ग दिलाने वाली सिद्ध होती है तथा दूसरी मोक्ष दिलाने वाली । यहाँ भी देखा जा सकता है कि आचार्य हरिभद्र द्रव्य-पूजा की सीमित उपयोगिता को प्रसंगवश स्वीकार कर रहे हैं ।
शुद्धागमैर्यथालाभं प्रत्यग्रैः शुचिभाजनैः । स्तोकैर्वा बहुभिर्वाऽपि पुष्पैर्जात्यादिसंभवैः ॥२॥ अष्टापायविनिर्मुक्त तदुत्थगुणभूतये ।
दीयते देवदेवाय या साऽशुद्धत्युदाहृता ॥३॥ शुद्ध साधनों की सहायता से (अर्थात् वैध रीति से अर्जित धन आदि की सहायता से) तथा दूसरे के (अर्थात् विक्रेता के) लाभ को ध्यान में रखते हुए प्राप्त किए गए, पवित्र पात्र में रखे गए, ताजा, थोड़े (अर्थात् आठ) अथवा बहुत (अर्थात्
आठ से अधिक) मालती आदि के फूलों से देवाधिदेव की जो अष्टपुष्पी पूजा की जाती है-उन देवाधिदेव की जो आठ प्रकार की ('कर्म' रूपी) बाधाओं से मुक्त हैं तथा इस मुक्ति के फलस्वरूप जिनमें उन उन सद्गुणों का (अथवा एक विशिष्ट गुण-वैभव का) प्रादुर्भाव हुआ है वह अशुद्ध कही गई है।
(टिप्पणी) देखा जा सकता है कि सर्वथा उचित प्रकार से संपादित की जाने वाली द्रव्य-पूजा भी आचार्य हरिभद्र के मतानुसार अशुद्ध है-भाव
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