________________
स्नान
(टिप्पणी) टीकाकार के मतानुसार यहाँ 'व्रत' का अर्थ है 'महाव्रत' (अर्थात् निरपवाद रूप से आचरित अहिंसा, सत्य, अ-चौर्य, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति) तथा 'शील' का अर्थ है 'समाधि', अथवा यहाँ 'व्रत' का अर्थ है वे चारित्रिक सद्गुण जिन्हें जैन-परंपरा 'मूल गुण' इस नाम से गिनाती है तथा 'शील'का अर्थ वे जिन्हें वह 'उत्तरगुण' इस नाम से गिनती है ।
स्नात्वाऽनेन यथायोगं निःशेषमलवर्जितः । भूयो न लिप्यते तेन स्नातकः परमार्थतः ॥८॥
इस प्रकार का भाव- स्नान विधिपूर्वक करने से एक व्यक्ति सभी मलिनताओं से मुक्त हो जाता है और ऐसा व्यक्ति — जो ही सच्चा स्नान करने वाला है- दुबारा मलिनताओं से लिप्त नहीं होता ।
(टिप्पणी) टीकाकार के मतानुसार ' स्नात्वाऽनेन यथायोगम्' इस कारिका-भाग का एक संभव अर्थ है 'अपनी योग्यतानुसार द्रव्य - स्नान अथवा भाव-स्नान करने से' उस दशा में 'निःशेषमलवर्जितः ' इस पद - समूह का अर्थ करना होगा ‘सभी मलिनताओं से (क्रमशः अथवा तत्काल) मुक्त हो जाता है', क्योंकि समझ यह है कि द्रव्य स्नान एक व्यक्ति की क्रमशः मुक्ति का कारण बनता है तथा भाव - स्नान उसकी तत्काल - मुक्ति का ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org