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अष्टक-२
अधिकारिवशात् शास्त्रे धर्मसाधनसंस्थितिः ।
व्याधिप्रतिक्रियातुल्या विज्ञेया गुणदोषयोः ॥५॥
जहाँ तक धर्म-संपादन के साधनों में (उदाहरण के लिए, द्रव्यस्नान तथा भाव-स्नान में) पाए जाने वाले गुण-दोषों का प्रश्न है उसके संबंध में हमें समझ रखना चाहिए कि शास्त्र में इन साधनों की व्यवस्था उन उन अधिकारियों की योग्यता को ध्यान में रखकर की गई है-उसी प्रकार जैसे रोग-चिकित्सा की व्यवस्था (रोगियों की दशा को ध्यान में रखकर) की जाती है ।।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं कि एक 'मलिनारंभी' व्यक्ति के लिए द्रव्य-स्नान भी उपयोगी क्यों ? (जबकि दूसरे व्यक्तियों के लिए अर्थात् गृह-त्यागी भिक्षुओं के लिए केवल भाव-स्नान ही उपयोगी है) ।
ध्यानांभसा तु जीवस्य सदा यच्छुद्धि-कारणम् ।
मलं कर्म समाश्रित्य भावस्नानं तदुच्यते ॥६॥ दूसरी ओर, ध्यान रूपी जल की सहायता से तथा 'कर्म' रूपी मैल को लक्ष्य बनाकर संपादित की जाने वाली आत्मा की शुद्धि का कारण जो स्नान सदा बनता है वह भाव-स्नान कहलाता है ।
(टिप्पणी) देखा जा सकता है कि प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र केवल यह कह रहे हैं कि एक व्यक्ति को ध्यान की सहायता से अपने पूर्वार्जित 'कर्मों' से मुक्ति पानी चाहिए, लेकिन ध्यान की तुलना जल से तथा 'कर्मों' की तुलना मैल से करके वे पाठक के मन पर यह छाप छोड़ना चाहते हैं जैसे मानों यहाँ किसी प्रकार के स्नान का वर्णन किया जा रहा है ।
ऋषीणामुत्तमं ह्येतन्निर्दिष्टं परमर्षिभिः ।
हिंसादोषनिवृत्तानां व्रतशीलविवर्धनम् ॥७॥
महर्षियों का कहना है कि उत्तम कोटि का भाव-स्नान वह भाव-स्नान जो व्रत एवं शील को बढ़ाने वाला है—वे ऋषि ही किया करते हैं जो हिंसा रूपी दोष से मुक्त हैं (अथवा हिंसारूपीदोष से मुक्त ऋषि भाव-स्नान को ही -उस भाव-स्नान को जो व्रत एवं शील को बढ़ाने वाला है—उत्तम कोटि का मानते हैं)।
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