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स्नान
जल की सहायता से शरीर के किसी भाग की क्षण भर के लिए शुद्धि जिस स्नान से प्रायः हो जाया करती है लेकिन जिस स्नान से अन्य किसी मैल का नाश नहीं होता (अथवा 'और जिस स्नान में जलगत प्राणियों के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार के प्राणियों की हिंसा प्रायः नहीं होती'*) वह द्रव्यस्नान कहलाता है ।
(टिप्पणी) जब द्रव्य-स्नान के संबंध में आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि उससे अन्य किसी मैल का नाश नहीं होता तब उनका आशय यह प्रतीत होता है कि द्रव्य-स्नान से 'मन की अशुद्धि' रूपी मैल का नाश नहीं होता । लेकिन टीकाकार के मतानुसार आचार्य हरिभद्र यहाँ यह कह रहे हैं कि द्रव्य-स्नान से उसी शरीर-भाग के मैल का नाश होता है जहाँ पानी डाला जाता है—न कि किसी अन्य शरीर-भाग के मैल का (उदाहरण के लिए, शरीर के भीतरी अवयवों के मैल का) ।
कृत्वेदं यो विधानेन देवतातिथिपूजनम् । करोति मलिनारंभी तस्यैतदपि शोभनम् ॥३॥ भावशुद्धिनिमित्तत्वात् तथानुभवसिद्धितः । कथंचिद्दोषभावेऽपि तदन्यगुणभावतः ॥४॥
इस प्रकार के स्नान को करके देवता तथा अतिथि की विधिपूर्वक पूजा यदि कोई मल-मलिन जीवन-चर्या वाला व्यक्ति (अर्थात् कोई गृहस्थ व्यक्ति) करता है तो ऐसे व्यक्ति का ऐसा स्नान भी शुभ ही है । इसका कारण यह है कि ऐसे व्यक्ति का ऐसा स्नान उस व्यक्ति की मनःशुद्धि का कारण बनता है और यह बात कि यह स्नान इस व्यक्ति की मनःशुद्धि का कारण बनता है इस व्यक्ति को अनुभव होता है । जिसका अर्थ यह हुआ कि प्रस्तुत प्रकार का स्नान कुछ दोषों वाला होते हुए भी कुछ दूसरे गुणों वाला भी है।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिकाओं में देखा जा सकता है कि आचार्य हरिभद्र द्रव्य-स्नान की सीमित उपयोगिता को प्रसंगवश स्वीकार कर रहे हैं । यहाँ एक गृहस्थ व्यक्ति को मल-मलिन जीवन-चर्या वाला व्यक्ति इसलिए कहा गया है कि गृहस्थावस्था में रहकर पापों से सर्वथा बचना संभव नहीं ।
★ इस दूसरे अर्थ में 'प्रायोऽन्यानुपरोधेन' इतना पद-समूह एक साथ लिया जाएगा।
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