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स्नान
दव्यतो भावतश्चैव द्विधा स्नानमुदाहृतम् ।
बाह्यमाध्यात्मिकं चेति तदन्यैः परिकीर्त्यते ॥१॥
स्नान दो प्रकार का कहा गया है—एक द्रव्य-स्नान (= भौतिक स्नान), दूसरा भाव-स्नान (= मानसिक स्नान) । स्नान के इन्हीं दो प्रकारों को दूसरे शास्त्रकारों ने 'बाह्य स्नान' तथा 'आध्यात्मिक स्नान' ये दो नाम दिए हैं।
. (टिप्पणी) एक मनुष्य द्वारा संपादित की जाने वाली क्रियाओं कोवस्तुतः शोभन क्रियाओं को दिए गए 'द्रव्यतः' तथा 'भावतः' ये दो विशेषण जैन-परंपरा में पारिभाषिक हैं । दो शब्दों में कहा जा सकता है कि एक शोभन क्रिया को केवल औपचारिक रूप से कर लेना उस क्रिया को 'द्रव्यतः' करना है जबकि उसे मनःशुद्धिपूर्वक करना उसे 'भावतः' करना है । शोभन क्रियाओं के उस द्विविध विभाजन का उपयोग आचार्य हरिभद्र ने अनेकों स्थलों पर केवल आलंकारिक रूप से किया है और ऐसा करके उन्होंने इस विभाजन का अर्थ थोड़ा अधिक विस्तृत कर दिया है । यह कहना इसलिए होगा कि कतिपय शोभन क्रियाओं के संबंध में-उदाहरण के लिए, स्नान, पूजा, हवन के संबंध मेंआचार्य हरिभद्र का भार इस बात पर नहीं है कि वे मनःशुद्धिपूर्वक की जानी चाहिए बल्कि इस बात पर कि उनके स्थान पर मनःशुद्धि की जानी चाहिए,
और उन उन रूपकों की सहायता से मनःशुद्धि का वर्णन करके वे कहते हैं कि अमुक प्रकार की मनःशुद्धि ‘भावतः किया गया स्नान' है, अमुक प्रकार की मनःशुद्धि 'भावतः की गई पूजा', 'अमुक प्रकार की मनःशुद्धि 'भावतः किया गया हवन' । हाँ, द्रव्यतः-अर्थात् केवल औपचारिक रूप से किए गए स्नान, पूजा, हवन को सीमित-वस्तुतः अत्यन्त सीमित-उपयोगिता को भी आचार्य हरिभद्र ने प्रसंगवश स्वीकार अवश्य किया है ।
जलेन देहदेशस्य क्षणं यच्छुद्धिकारणम् । प्रायोऽन्यानुपरोधेन द्रव्यस्नानं तदुच्यते ॥२॥
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