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XVII
है न कोई किसी के द्वारा मारा जाता है-अर्थात् उसके मतानुसार हिंसा (अतः अहिंसा) एक असंभव बात सिद्ध होती है । लेकिन मोक्ष का प्रधान साधन है अहिंसा जबकि अहिंसा के सहायक सद्गुण हैं सत्य, अ-चौर्य, ब्रह्मचर्य आदि, और ऐसी दशा में जिस विचारक के मतानुसार अहिंसा एक असंभव बात है उसके मतानुसार इन मोक्ष-साधनों का संपादन भी एक असंभव बात-अथवा एक बेकार की बात होनी चाहिए । (१५) एकांगी अनित्यत्ववाद का खंडन
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने यह सिद्ध किया है कि एकांगी अनित्यत्ववाद को स्वीकार करने पर मोक्ष-साधनों का संपादन किस प्रकार असंभव बन जाता है । संक्षेप में उनका तर्क यह है कि जो विचारक नाश को निर्हेतुक मानता है और एकांगी अनित्यत्ववादी (= क्षणिकवादी) ऐसा मानता ही है—उसके मतानुसार भी कोई किसी को मार नहीं सकता—अर्थात् उसके मतानुसार भी हिंसा (अतः अहिंसा) एक असंभव बात सिद्ध होती है ।
और तब मोक्ष-साधनों का संपादन प्रस्तुत मत में भी उसी प्रकार एक असंभव बात-अथवा एक बेकार की बात हो जानी चाहिए जैसे कि वह एकांगी नित्यत्ववाद में हो जाती है । (१६) नित्यानित्यत्ववाद का समर्थन
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने यह सिद्ध किया है कि नित्यानित्यत्ववाद को-जो एक जैन दार्शनिक मान्यता है-स्वीकार करने पर मोक्ष-साधनों का सम्पादन किस प्रकार संभव बन जाता है। उनका सीधा तर्क यह है कि जब एकांगी नित्यत्ववाद तथा एकांगी अनित्यत्ववाद दोनों अ-संगत मान्यताएँ हैं तब नित्यानित्यत्ववाद ही एक सुसंगत मान्यता होनी चाहिए । (१७) माँस-भक्षण के दोष
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने इस तर्क का खंडन किया है कि "एक व्यक्ति को माँस खाना चाहिए, क्योंकि वह एक प्राणी के शरीर का भाग है, उसी प्रकार जैसे चावल" । आचार्य हरिभद्र का उत्तर है कि माँस का एक प्राणी के शरीर का भाग होना न होना माँस-भक्षण के पक्ष अथवा विपक्ष में तर्क नहीं, और वह इसलिए कि माँस-भक्षण के विपक्ष में वास्तविक तर्क है माँस में सूक्ष्म जीवों का होना।
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