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XVIII
(१८) माँस-भक्षण के दोष
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र मनु के इस विधान का खंडन प्रारंभ करते हैं कि "न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥" माँस-भक्षण के संबंध में आचार्य हरिभद्र का तर्क है कि जब ब्राह्मण-परंपरा के ही ग्रंथों में माँस-भक्षण की निन्दा पाई जाती है तथा जब इन ग्रंथों में किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही माँस-भक्षण को वैद्य (अथवा अवश्यकरणीय) ठहराया गया है तब मनु का 'न मांसभक्षणे दोषः' जैसा दो-टूक विधान उचित नहीं । (१९) मदिरा-पान के दोष
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र एक दृष्टान्त की सहायता से यह सिद्ध करते हैं कि मदिरा-पान से एक व्यक्ति की सद्बुद्धि का नाश कैसे हो जाता है। यहाँ भी उनके मन में पूर्वपक्ष रूप से मनु का वही विधान है कि 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये' । (२०) मैथुन के दोष
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र सिद्ध करते हैं कि मैथुन अनर्थकारी कैसे। और क्योंकि मैथुन गृहस्थाश्रम में ही संभव है वे यह कहना भी आवश्यक समझते हैं कि गृहस्थाश्रम एक निंदनीय जीवनावस्था है । इतना ही नहीं, वे यह भी सिद्ध करते हैं कि स्वयं ब्राह्मण-परंपरा गृहस्थाश्रम को एक निंदनीय जीवनावस्था मानती है-उस आधार पर कि यह परंपरा कहती है कि 'एक व्यक्ति वेदाध्ययन करके ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे' न कि यह कि 'एक व्यक्ति वेदाध्ययन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे ही' । यहाँ भी आचार्य हरिभद्र के मन में पूर्वपक्ष रूप से मनु का वही विधान है कि 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने' ।।
(२१) धर्म संबंधी विचार में सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने इस आवश्यकता पर भार दिया है कि धर्म संबंधी अर्थात् सदाचरण संबंधी प्रश्नों पर विचार सूक्ष्म बुद्धि से किया जाना चाहिए । उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति प्रतिज्ञा ले कि वह रोगियों की चिकित्सा करायेगा और जब उसे कोई रोगी न मिले तब वह अपने दुर्भाग्य को कोसे तो यह उस व्यक्ति की स्थूल बुद्धि का परिचय हुआ ।
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