________________
XVI
(१०) वैराग्य
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने वैराग्य को तीन प्रकार का बतलाया है-पहला वह जो उस व्यक्ति को होता है जिसका अपनी प्रिय किसी सांसारिक वस्तु से वियोग हो गया है अथवा अपनी अप्रिय कोई सांसारिक वस्तु जिसके सिर पड़ गई है, दूसरा वह जो इस व्यक्ति को होता है जिसकी त्याग--भावना तो सच्ची है लेकिन जिसे सच्चा तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं, तीसरा वह जो उस व्यक्ति को होता है जिसे सच्चा तत्त्व-ज्ञान भी प्राप्त है ।
(११) तप
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने विरोधी मत का खंडन करते हुए इस मत का प्रतिपादन किया है कि तप का सार-स्वरूप दुःखानुभूति नहीं, भले ही इस तप का एक संभव भाग इस प्रकार की दुःखानुभूति क्यों न हो।
(१२) वाद
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने वाद को तीन प्रकार का बतलाया हैपहला एक पापी व्यक्ति के साथ होने वाला वाद, दूसरा किसी सांसारिक लाभ के इच्छुक एक व्यक्ति के साथ होने वाला वाद, तीसरा एक सद्-धार्मिक व्यक्ति के साथ होने वाला वाद । (१३) धर्मवाद
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने बतलाया है कि 'धर्मवाद' का जो उनके मतानुसार वाद का सर्वश्रेष्ठ प्रकार है—विषय क्या होना चाहिए और क्या नहीं। उनके मतानुसार धर्मवाद का विषय होना चाहिए यह प्रश्न कि तत्त्वज्ञानविषयक किन मान्यताओं को स्वीकार करने पर मोक्ष-साधनों का सम्पादन संभव बना रहता है तथा किन्हें स्वीकार करने पर नहीं । दूसरी ओर उनका मत है कि 'प्रमाण का लक्षण क्या है ?' यह तथा इस प्रकार के प्रश्न धर्मवाद के विषय नहीं होने चाहिए । (१४) एकांगी नित्यत्ववाद का खंडन
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने यह सिद्ध किया है कि एकांगी नित्यत्ववाद को स्वीकार करने पर मोक्ष-साधनों का सम्पादन किस प्रकार असंभव बन जाता है । संक्षेप में उनका तर्क यह है कि जो विचारक आत्मा को सर्वथा अपरिवर्तिष्णु मानता है उसके मतानुसार न तो कोई किसी को मारता
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org