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है तो कोई दोष नहीं-अर्थात् दोष तब है जब यह भिक्षा-दाता इस प्रकार का संकल्प एक ऐसी वस्तु के संबंध में करे जो उसके अपने उपयोग के लिए नहीं तैयार की गई । (७) एकान्त भोजन
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने अपनी इस मान्यता के पक्ष में तर्क उपस्थित किया है कि एक साधु को भोजन एकान्त में करना चाहिए । दो शब्दों में उनका तर्क यह है कि खुले में भोजन करने पर यह संभव है दरिद्र लोग साधु से भोजन माँगने आ जाएँ-जबकि इन दरिद्र लोगों को भोजन देने पर यह साधु शुभ 'कर्म' का अर्जन करेगा तथा उन्हें भोजन न देने पर अशुभ 'कर्म' का (जो दोनों ही परिस्थितियाँ इस साधु के पुनर्जन्म का कारण बनेगी)। (८) प्रत्याख्यान
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने प्रत्याख्यान के चार संभव दोषों को गिनाया है, उस प्रत्याख्यान के जो जैन-परंपरा में स्वीकृत एक धार्मिक क्रिया है तथा जिसका स्वरूप है एक व्यक्ति द्वारा पाप-विरति का संकल्प किया जाना। उक्त चार दोष ये हैं (१) प्रत्याख्यान के पीछे किसी अपेक्षा (= सांसारिक कामना) का होना, (२) प्रत्याख्यान को शास्त्रोक्त विधि के अनुसार न करना, (३) प्रत्याख्यान के अवसर पर सच्ची त्यागभावना का मन में उदय न होना; (४) प्रत्याख्यान के अवसर पर घोर प्रयत्नशीलता का मन में अभाव होना।
(९) ज्ञान
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने ज्ञान को तीन प्रकार का बतलाया है-पहला वह जो वस्तुओं के स्वरूप मात्र की प्रतीति कराता है उनके गुण-दोषों की नहीं, दूसरा वह जो वस्तुओं के गुणदोषों की भी प्रतीति कराता है लेकिन जो एक व्यक्ति को इतनी सामर्थ्य नहीं देता कि वह भले कामों को कर सके तथा बुरे कामों से बच सके, तीसरा वह जो एक व्यक्ति को इतनी सामर्थ्य भी देता है कि वह भले कामों को कर सके तथा बुरे कामों से बच सके ।
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