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________________ XIII किस किस बात में एक दूसरे के असमान, अभी प्रसंगवश आचार्य हरिभद्र के मैथुन संबंधी अष्टक का उल्लेख किया गया था, वस्तुतः उन्होंने माँस, मदिरा तथा मैथुन इन तीन विषयों पर तीन अष्टकों की रचना की है मनुस्मृति के उस विधान को ध्यान में रखते हुए कि "न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥" (अष्टक १८, १९, २०) चर्चा रोचक है और एक तटस्थ पाठक को वह इस बात का स्पष्ट आभास दे पाती है कि प्रस्तुत प्रश्न पर जैन तथा ब्राह्मण परंपराओं के बीच मतभेद का आधार क्या था । ___ अभी ऊपर जिन अष्टकों की ओर इंगित किया गया है वे वे हैं जिनमें परमत-खंडन की प्रवृत्ति विशेष रूप से प्रबल है और इसीलिए जो आचार्य हरिभद्र का मुख्य आशय समझने के मार्ग में एक तटस्थ पाठक के लिए थोड़ा बाधक सिद्ध हो सकते हैं। क्योंकि जैसा कि प्रारंभ में ही कहा गया था आचार्य हरिभद्र के अधिकांश ग्रंथों की तथा प्रस्तुत ग्रंथ की—दो ध्यान आकृष्ट करने वाली विशेषताएँ हैं उदात्त आचरण की आवश्यकता पर भार तथा परमतसहिष्णुता। उक्त संभव बाधाएँ पार कर लेने के बाद आचार्य हरिभद्र के प्रस्तुत ग्रंथ के एक तटस्थ पाठक का मार्ग प्रायः प्रशस्त हो जाना चाहिए । अब इन ३२ अष्टकों की विषय-वस्तु पर एक एक करके विहंगावलोकन कर लिया जाए : (१) महादेव __इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने उन सभी व्यक्तियों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है—उन्हें 'महादेव' यह नाम देकर-जो उनकी दृष्टि में एक आदर्श कोटि की आचारशीलता से सम्पन्न हैं तथा जिन्होंने अपनी इस प्रकार की आचारशीलता के फलस्वरूप मोक्ष प्राप्त कर ली है। इस अष्टक से जाना जा सकेगा कि किस प्रकार की आचारशीलता को आचार्य हरिभद्र आदर्श कोटि में गिनते हैं । (२) स्नान इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि जल की सहायता से शरीर के मैल का नाश कर देने वाले स्नान की अपनी सीमित उपयोगिता होते हुए भी वास्तविक स्नान-अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टि से उपादेय स्नानवह है जिसमें ध्यान रूपी जल की सहायता से 'कर्म' रूपी मैल का नाश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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