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________________ _XII प्रस्तुत ३२ अष्टकों में से तीन को छोड़कर शेष सभी का सीधा संबंध आचारशास्त्रीय अथवा धर्मशास्त्रीय समस्याओं से है । अपवाद रूप तीन अष्टक वे हैं जिनमें से एक में एकांगी नित्यत्ववाद का खंडन किया गया है, एक में एकांगी अनित्यत्ववाद का खंडन तथा एक में नित्यानित्यत्ववाद का समर्थन (अष्टक १४, १५, १६), लेकिन इन अष्टकों का भी आचारशास्त्रीय तथा धर्मशास्त्रीय समस्याओं से दूर का संबंध नहीं, क्योंकि इनकी सहायता से भी आचार्य हरिभद्र ने कतिपय आचारशास्त्रीय तथा धर्मशास्त्रीय मान्यताओं का ही पुष्ट - पोषण करना चाहा है । आचारशास्त्रीय तथा धर्मशास्त्रीय समस्याओं से सीधा संबंध रखनेवाले अष्टकों में से कुछ की उपयोगिता एक साधु के ही निकट है तथा शेष की एक साधु तथा एक गृहस्थ दोनों के निकट, लेकिन एक जैन होने के नाते (अर्थात् एक निवृत्ति-मार्गी परंपरा के अनुयायी होने के नाते) आचार्य हरिभद्र को इस प्रकार बात करना प्रायः अनिवार्य हो जाता है जैसे मानों गृहस्थ-जीवन एक सर्वथा निंद्य प्रकार का जीवन है और मैथुन संबंधी अष्टक (नं. २०) में वे इस बात को स्पष्ट रूप से कह भी देते हैं । फिर हमें ध्यान देना हैं उन तीन अष्टकों पर जिनमें आचार्य हरिभद्र उन तीन आपत्तियों का क्रमशः निवारण करते है जो एक जैन तीर्थंकर की जीवन-चर्या के विरुद्ध किन्हीं जैनेतर धर्मशास्त्रियों की ओर से उठाई जाती होंगी ( अष्टक २६, २७, २८) इन अष्टकों पर साम्प्रदायिकता की छाप स्पष्ट है लेकिन इनकी सहायता से भी आचार्य हरिभद्र अपनी कतिपय सैद्धान्तिक मान्यताओं का स्पष्टीकरण संभव बना पाए हैं । कुछ इसी प्रकार की साम्प्रदायिकता की छाप लिए प्रतीत होता है वह अष्टक जिसमें सामायिक का स्वरूप - निरूपण किया गया है, अष्टक २९ लेकिन उसकी स्थिति थोड़ी भिन्न है । बात वह है कि मोक्ष का साधन क्या है ?' इस प्रश्न का उत्तर यदि आचार्य हरिभद्र को एक शब्द में देना हो तो वे कहेंगे "सामायिक" । ऐसी दशामें उनके लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वे सामायिक को उन सब क्रियाकलापों की तुलना में श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न करें जिन्हें उन उन जैनेतर परंपराओं में मोक्ष का साधन माना गया है (भले ही ये क्रिया-कलाप अमुक अमुक अंश में सामायिक जैसे ही क्यों न हों ) — और प्रस्तुत अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने यही किया भी है। वस्तुतः प्रस्तुत अष्टक जैसी रचनाएँ ही तो हमे वह सामग्री प्रदान करती हैं जिसकी सहायता से हम इस बात का अध्ययन कर सकें कि प्राचीन तथा मध्यकालीन भारत के उन उन धर्मसम्प्रदायों द्वारा आदर्श रूप से कल्पित जीवनचर्याएँ किस किस बात में एक दूसरे के समान हैं तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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