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सामायिक का स्वरूप
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि एक व्यक्ति को सद्बुद्धि की प्राप्ति अपने प्रयत्नों के फलस्वरूप होती है न कि किसी देवता आदि से सद्बुद्धि की याचना के फलस्वरूप; लेकिन क्योंकि इस प्रकार की याचना सूचित करती है कि उक्त व्यक्ति उक्त देवता आदि के प्रति भक्ति-शील है वह एक सीमित अर्थ में एक प्रशंसनीय कार्य भी है ।
अपकारिणि सद्बुद्धिर्विशिष्टार्थप्रसाधनात् ।
आत्मभरित्वपिशुना तदपायानपेक्षिणी ॥७॥
और अपने पर अपकार करने वाले एक प्राणी के संबंध में किसी व्यक्ति द्वारा बनाई गई यह समझ कि वह एक भला प्राणी है उस व्यक्ति के एक विशिष्ट प्रयोजन की (अर्थात् उसकी मोक्ष-प्राप्ति की) साधक होने के कारण उसकी स्वार्थमयता की सूचक है; वह इसलिए कि यह समझ उस अपकारी प्राणी की आगामी दुर्गति की उपेक्षा करके चलती है ।।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र की आलोचना का लक्ष्य वे विचारक हैं जिनकी दृष्टि में यह एक आदर्श कोटि का आचरण है कि अपने पर अपकार करने वाले प्राणी को एक भला प्राणी समझा जाए । आचार्य हरिभद्र का कहना है कि इस प्रकार की समझ इस समझ वाले व्यक्ति का तो हित-साधन करेगी लेकिन वह उस व्यक्ति को इस बात की प्रेरणा न देगी कि वह अपना अपकार करने वाले प्राणी के सचमुच भला प्राणी बनने में सहायक सिद्ध हो।
एवं सामायिकादन्यदवस्थान्तरभद्रकम् ।
स्याच्चित्तं तत्तु संशुद्धे यमेकान्तभद्रकम् ॥८॥ इस प्रकार सामायिक से अन्य प्रकार की कोई मनोभावना किसी अवस्थाविशेष में ही शुभ मानी जा सकती है जबकि पूर्णतः शुद्ध होने के कारण सामायिक को एक सर्वथा शुभ क्रिया समझनी चाहिए ।
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