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अष्टक-२९
'सामायिक से आचार्य हरिभद्र का आशय उसी सदाचरण-मार्ग से है जिसका निरूपण जैन शास्त्रीय ग्रंथों में हुआ है । और यह बात अत्यंत स्पष्ट हो जानी चाहिए आगामी कारिकाओं में जहाँ आचार्य हरिभद्र उस आदर्श आचरण-मार्ग की आलोचना करते हैं जिसकी कल्पना बौद्धपरंपरा में की गई है ।
मय्येव निपतत्वेतज्जगहुश्चरितं यथा ।
मत्सुचरितयोगाच्च मुक्तिः स्यात् सर्वदेहिनाम् ॥४॥ उदाहरण के लिए (यह है बौद्धों द्वारा किया गया एक शुभ मनोभावना का वर्णन), "जगत् के जितने भी पापाचरण हैं वे मुझ पर आ पड़ें (अर्थात् उनका फल मुझे मिले) तथा मेरे पुण्याचरणों के फलस्वरूप सब प्राणियों को मोक्ष की प्राप्ति हो ।"
असंभवीदं यद् वस्तु बुद्धानां निर्वृतिश्रुतेः ।
संभवित्वे त्वियं न स्यात्तत्रैकस्याप्यनिर्वृतौ ॥५॥
उक्त स्वरूप वाली शुभ मनोभावना के विरुद्ध हमारी आपत्ति का आधार यह है कि यह सब एक असंभव बात है और वह इसलिए कि हम सुनते हैं कि उन उन बुद्धों को निर्वाण की प्राप्ति हुई । सचमुच, यदि उक्त बात संभव है तो जब तक जगत् में एक भी प्राणी निर्वाण से वंचित है तब तक किसी बुद्ध को निर्वाण की प्राप्ति नहीं होनी चाहिए ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि एक बौद्ध की प्रस्तुत अभिलाषोक्ति एक अतिशयोक्ति मात्र है। यहाँ 'बुद्ध' इस शब्द का अर्थ समझना चाहिए 'मोक्ष-दायक सिद्ध होने वाले ज्ञान से संपन्न व्यक्ति' । वस्तुतः एक सर्वमोक्षवादी बौद्ध-अर्थात् महायानी बौद्ध-कहेगा कि जब तक एक भी व्यक्ति निर्वाण से वंचित है तब तक किसी भी व्यक्ति को निर्वाण सचमुच प्राप्त नहीं होगा ।
तदेवं चिन्तनं न्यायात् तत्त्वतो मोहसंगतम् ।
साध्ववस्थांतरे ज्ञेयं बोध्यादेः प्रार्थनादिवत् ॥६॥
अत: तर्कपूर्वक देखने पर उक्त प्रकार का विचार वस्तुतः मोह-युक्त सिद्ध होता है । हाँ, किसी अवस्थाविशेष में उसे शोभन भी माना जा सकता है उसी प्रकार जैसे बोधि (= सद्बुद्धि) आदि की प्रार्थना को (जो वस्तुतः एक मोहयुक्त क्रिया होते हुए भी किसी अवस्थाविशेष में शोभन भी मानी जा सकती
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