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२८ राज्य आदि का दान करने पर भी
तीर्थंकर दोष के भागी नहीं
अन्यस्त्वाहास्य राज्यादिप्रदाने दोष एव तु ।
महाधिकरणत्वेन तत्त्वमार्गेऽविचक्षणः ॥१॥
तत्त्व-मार्ग को न जानने वाले किसी दूसरे वादी का कहना है कि राज्य आदि का दान करने पर एक तीर्थंकर को दोष का भागी होना ही चाहिए और वह इसलिए कि ये राज्य आदि महान् पाप-कार्यों का कारण सिद्ध होते हैं ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र की समझ है कि राज्य-पालन आदि सांसारिक कार्यों को करने में बड़े बड़े पाप अवश्य ही होते हैं। इसीलिए प्रस्तुत वादी की उनके सामने शंका है कि तब फिर तीर्थंकरो ने अपने उत्तराधिकारियों को राज्य सौंपना आदि कार्य क्यों किए ।
अप्रदाने हि राज्यस्य नायकाभावतो जनाः । मिथो वै कालदोषेण मर्यादाभेदकारिणः ॥२॥ विनश्यन्त्यधिकं यस्मादिह लोके परत्र च । शक्तौ सत्यामुपेक्षा च युज्यते न महात्मनः ॥३॥ तस्मात् तदुपकाराय तत्प्रदानं गुणावहम् । ।
परार्थदीक्षितस्यास्य विशेषेण जगद्गुरोः ॥४॥ (इस पर हमारा उत्तर है) यदि राज्य किसी को सौंपा न जाए तो वर्तमान काल ऐसा दोष-दूषित है कि एक नेता के अभाव में जनसाधारण स्थापित मर्यादाओं का उल्लंघन करके एक-दूसरे के लोकपरलोक का भरपूर नाश कर डालते हैं; अत: महात्माओं को चाहिए कि वे शक्ति रहते इस संबंध में उपेक्षा न करें (अर्थात् वे अवश्य ही राज्य किसी न किसी को सौंपे) । यही कारण है कि जन-साधारण के उपकार की दृष्टि से जगद्गुरु द्वारा किया गया
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