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________________ राज्य आदि का दान करने पर भी तीर्थंकर दोष के भागी नहीं राज्य-दान-उन जगद्गुरु द्वारा जिन्होंने परहित करने की प्रतिज्ञा ली है—विशेष रूप से गुणकारी सिद्ध होता है । (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि राज्य-पालन करने में कुछ पाप अवश्य होते हैं लेकिन राज्यपालन के फलस्वरूप कुछ दूसरे और भी अधिक भयंकर अनर्थों से बचाव हो जाता है । अगली एक कारिका में यह बात विशेष रूप से स्पष्ट की जाएगी । एवं विवाहधर्मादौ तथा शिल्पनिरूपणे । न दोषो ह्युत्तमं पुण्यमित्थमेव विपच्यते ॥५॥ इसी प्रकार जगद्गुरु द्वारा किए गए विवाह आदि धर्मों के निरूपण में तथा उनके द्वारा किए गए उन उन शिल्पकलाओं के निरूपण में भी कोई दोष नहीं; यह इसलिए कि एतत्संबंधी शुभ 'कर्म' (अर्थात् 'तीर्थंकर' नाम वाला 'कर्म') इसी प्रकार से फलदायी बना करता है। __ (टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका में भी इंगित कुछ ऐसे कार्यों की ओर है जिनको करने में कुछ न कुछ पाप अवश्य होता है लेकिन जिनका निरूपण तीर्थंकरो ने किया है । आचार्य हरिभद्र की समझ है कि ये सब कार्य संसारोपयोगी हैं और परोपकार-रत तीर्थंकरों का यह स्वभाव ही है कि वे इन कार्यों का निरूपण करें । अगली कारिका में यह बात विशेष रूप से स्पष्ट हो जाएगी । किंचेहाधिकदोषेभ्यः सत्त्वानां रक्षणं तु यत् । उपकारस्तदेवैषां प्रवृत्त्यंगं तथाऽस्य च ॥६॥ दूसरे, उक्त (राज्य-दान आदि) कार्यों द्वारा प्राणियों की उन दोषों से रक्षा होती है जो इन कार्यों से होने वाले दोषों की अपेक्षा भी अधिक भयंकर हैं; इन दोषों से रक्षा ही जगद्गुरु का इन प्राणियों पर उपकार है और इस उपकार के उद्देश्य से ही वे (अर्थात् जगद्गुरु) उन उन कार्यों को हाथ में लेते हैं । नागादे रक्षणं यद्वद् गर्ताद्याकर्षणेन तु । कुर्वन्न दोषवाँस्तद्वदन्यथाऽसंभवादयम् ॥७॥ जिस प्रकार एक मनुष्य को गड्ढे आदि के निकट से खींच कर उसे साँप आदि से बचाने वाला व्यक्ति दोष का भागी नहीं उसी प्रकार जगद्गुरु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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