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तीर्थंकर का दान निष्फल नहीं
(टिप्पणी) जैन कर्म-शास्त्र की मान्यतानुसार एक व्यक्ति के एक पूर्वार्जित 'कर्म' का नाश उसके उस 'कर्म' का फल भोग लेने पर हो जाता है (यद्यपि यहाँ कुछ ऐसी परिस्थितियों की कल्पना भी की गई है जिनमें एक 'कर्म' का नाश अन्यथा भी संभव है) । यही बात 'तीर्थंकर' नाम वाले 'कर्म' पर भी लागू होती है और इसीलिए आचार्य हरिभद्र यहाँ कह रहे हैं कि 'तीर्थंकर' नाम वाले 'कर्म' का नाश अमुक प्रकार के व्यवहार के फलस्वरूप ही होता है (अर्थात् परोपकार-रत जीवन-यापन के फलस्वरूप ही होता है) ।
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