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अष्टक-२७
गुणस्थान की प्राप्ति कराने वाला जो उसे और भी ऊँचे गुणस्थान की और ले जाता है।
ये तु दानं प्रशंसन्तीत्यादिसूत्रं तु यत् स्मृतम् । अवस्थाभेदविषयं द्रष्टव्यं तन्महात्मभिः ॥७॥
और जो 'ये तु दानं प्रशंसन्ति' आदि शास्त्र-वचन हैं (जहाँ दान-प्रशंसा को अनुचित बतलाया गया है) उनके संबंध में महात्माओं को समझना है कि वे (दाता तथा दान-पात्र की) किन्हीं विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखकर कहे गए हैं ।
(टिप्पणी) यहाँ आचार्य हरिभद्र का इंगित किन्हीं ऐसे शास्त्र-वचनों की ओर है जिनमें दान-प्रशंसा को अनुचित बतलाया गया है; उत्तर में उनका इतना ही कहना है कि ऐसे अवसर अवश्य संभव हैं जिनमें दान देना अनुचित है लेकिन सभी अवसरों पर दान देना अनुचित हो यह बात नहीं । इस संबंध में टीकाकार ने वह पूरा शास्त्रवाक्य उद्धृत किया है जो आचार्य हरिभद्र के मन में है वह है:
जे उ दाणं पसंसन्ति वहमिच्छन्ति पाणिणं । जे उ णं पडिसेहन्ति वित्तिच्छेयं करन्ति ते ॥ [ = ये तु दानं प्रशंसन्ति वधमिच्छन्ति प्राणिनाम् ।
ये पुनः प्रतिषेधन्ति वृत्तिच्छेदं कुर्वन्ति ते ॥] (अर्थात् जो लोग दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं तथा जो लोग दान का निषेध करते हैं वे दूसरों की जीविका का हनन करते हैं)।
एवं न कश्चिदस्यार्थस्तत्त्वतोऽस्मात प्रसिध्यति ।
अपूर्वः किन्तु तत्पूर्वमेवं कर्म प्रहीयते ॥८॥
इस प्रकार महान् दान से जगद्गुरु का कोई नया प्रयोजन वस्तुतः नहीं सिद्ध होता लेकिन इस प्रकार के दान से उनका वह पूर्वार्जित 'कर्म' अवश्य नष्ट होता है [अथवा उनका वह 'कर्म' इस प्रकार दान-पूर्वक ही नष्ट होता है (जिसके कारण उन्हें तीर्थंकर बनने का अवसर मिला) ।।
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