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तीर्थंकर का दान निष्फल नहीं
से जोड़ा गया है ।
शुभाशयकरं ह्येतदाग्रहच्छेदकारि च । सदभ्युदयसारांगमनुकम्पाप्रसूति च ॥४॥
दान शुभ मनोभावनाओं को जन्म देने वाला है, धन पर चिपके रहने की भावना को नष्ट करने वाला है, शोभन अभ्युदय का प्रधान कारण है, तथा अनुकम्पा से उत्पन्न होने वाला है ।
ज्ञापकं चात्र भगवान् निष्क्रान्तोऽपि द्विजन्मने । देवदूष्यं ददद् धीमाननुकम्पाविशेषतः ॥५॥
इस संबंध में दृष्टान्त भगवान् (महावीर) ही हैं महाप्रज्ञा वाले जिन्होंने प्रव्रज्यावस्था में भी अत्यंत अनुकम्पावश एक ब्राह्मण को देव-वस्त्र का दान दिया ।
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(टिप्पणी) कथा कहती है कि एक अवसर पर भगवान् महावीर ने अपने वस्त्र का अर्ध-भाग उस वस्त्र का जिसे उन्होंने देव- राज से पाया था— एक याचक ब्राह्मण को दान में दे डाला था ।
इत्थमाशयभेदेन नातोऽधिकरणं मतम् ।
अपि त्वन्यद् गुणस्थानं गुणान्तरनिबंधनम् ॥६॥
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इस प्रकार उक्त स्वरूप वाला दान शुभ मनोभावनाओं से संयुक्त होने के कारण एक व्यक्ति को निकृष्ट स्थिति में पहुँचाने वाला नहीं सिद्ध होता अपि तु वह उसे एक ऐसे उच्चतर गुणस्थान में पहुँचाने वाला सिद्ध होता है जो उसे और भी उच्च गुणस्थान की ओर ले जाता है ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका में आए 'अधिकरण' तथा 'गुणस्थान' इन दो शब्दों के अर्थ पर थोड़ा ध्यान देना चाहिए । यहाँ 'अधिकरण' इस शब्द का अर्थ है निकृष्ट अर्थात् पापमय जीवन स्थिति । दूसरी ओर, 'गुणस्थान' यह शब्द जैनपरंपरा में पारिभाषिक है और इसका अर्थ है आध्यात्मिक विकास की वे १४ उच्चावच भूमिकाएँ जिनमें होकर क्रमश: गुजरती हुई एक आत्मा अन्त में मोक्ष प्राप्त करती है । प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र कह रहे हैं कि शुभमनोभावनापूर्वक दिया गया दान इस दान देने वाले व्यक्ति को एक 'अधिकरण ' की प्राप्ति कराने वाला नहीं सिद्ध होता बल्कि वह सिद्ध होता है उसे एक ऐसे
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