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________________ २७ तीर्थंकर का दान निष्फल नहीं कश्चिदाहास्य दानेन क इवार्थः प्रसिध्यति । मोक्षगामी ध्रुवं ह्येष यतस्तेनैव जन्मना ॥१॥ किसी का पूछना है कि दान देने से जगद्गुरु का क्या प्रयोजन सिद्ध होगा, क्योंकि वे तो अवश्यमेव इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करने जा रहे हैं ? (टिप्पणी) जैसा कि पहले कहा जा चुका है एक तीर्थंकर अपने इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करते हैं—यद्यपि उनकी यह विशेषता दूसरे व्यक्तियों में भी (जो तीर्थंकर नहीं) पाई जा सकती है । उच्यते कल्प एवास्य तीर्थकृन्नामकर्मणः । उदयात् सर्वसत्त्वानां हित एव प्रवर्तते ॥२॥ इस पर हमारा उत्तर है कि 'तीर्थंकर' नाम वाले 'नाम-कर्म' का यह स्वभाव ही है कि उसका उदय होने पर एक व्यक्ति सब प्राणियों का भला करने में ही लग जाता है । (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि दान आदि परोपकारी काम एक तीर्थंकर किसी फल की इच्छा से नहीं करते बल्कि अपने स्वभाववश करते हैं । धर्मांगख्यापनार्थं च दानस्यापि महामतिः । अवस्थौचित्ययोगेन सर्वस्यैवानुकम्पया ॥३॥ और इन महामति. (= जगद्गुरु) ने महान् दान यह सिद्ध करने के लिए दिया कि अपनी परिस्थिति के अनुसार तथा अनुकम्पापूर्वक दान देना भी एक ऐसा धर्म-कृत्य है (अथवा धर्म का कारणभूत कृत्य है) जिसका संपादन सभी को करना चाहिए । (टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका का अर्थ करते समय टीकाकार के अनुसरण पर 'महादानं दत्तवान्' (= महान् दान दिया') इस वाक्य-भाग को अपनी ओर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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