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२५ पुण्य को जन्म देने वाले पुण्य का प्रधान फल
अतः प्रकर्षसम्प्राप्ताद् विज्ञेयं फलमुत्तमम् ।
तीर्थकृत्त्वं सदौचित्य-प्रवृत्त्या मोक्षसाधकम् ॥१॥
पुण्य को जन्म देने वाले उत्कृष्ट कोटि के पुण्य का प्रधान फल है 'तीर्थंकरता', वह 'तीर्थंकरता' जिसके कारण एक व्यक्ति सदैव औचित्यपूर्वक व्यवहार करता है तथा (कालान्तर में) मोक्ष प्राप्त करता है ।
(टिप्पणी) एक तीर्थंकर के स्वरूप के संबंध में चर्चा पहले हो चुकी है।
सदौचित्यप्रवृत्तिश्च गर्भादारभ्य तस्य यत् । तत्राप्यभिग्रहो न्याय्यः श्रूयते हि जगद्गुरोः ॥२॥ पित्रुद्वेगनिरासाय महतां स्थितिसिद्धये ।
इष्टकार्यसमृद्ध्यर्थमेवंभूतो जिनागमे ॥३॥
और (तीर्थंकर बनने वाला) यह व्यक्ति सदैव औचित्यपूर्वक व्यवहार करता है अपने गर्भवास काल से ही, क्योंकि जैन शास्त्रों में सुना जाता है कि जगद्गुरु (तीर्थंकर महावीर) ने अपने माता-पिता के उद्वेग को शान्त करने के लिए, महापुरुषों की कर्तव्यमर्यादा स्थापित करने के लिए, अपने अभीष्ट कार्य की (अर्थात् प्रव्रज्या की) सफल सिद्धि के लिए माता के गर्भ में ही निम्नलिखित न्यायोचित प्रतिज्ञा की थी :
(टिप्पणी) तीर्थंकर महावीर का प्रस्तुत प्रकार का व्यवहार इस बात का एक दृष्टान्त मात्र है कि सभी तीर्थंकर अपने गर्भवास-काल से ही उदात्त मनोभावों का प्रदर्शन करने लग जाते हैं ।
जीवतो गृहवासेऽस्मिन् यावन्मे पितराविमौ ।
तावदेवाधिवत्स्यामि गृहानहमपीष्टतः ॥४॥ "अपनी इस गृहस्थावस्था में मेरे माता-पिता जब तक जीवित हैं तभी
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