________________
अष्टक-२५
तक मैं घर पर रहूँगा और अपनी इच्छा से ।
(टिप्पणी) 'अपनी इस गृहस्थावस्था' का अर्थ है 'अपने इस जन्म की गृहस्थावस्था' ।
इमौ शुश्रूषमाणस्य गृहानावसतो गुरू ।
प्रव्रज्याऽप्यानुपूर्वेण न्याय्याऽन्ते मे भविष्यति ॥५॥
अपने इन गुरुजनों की शुश्रूषा करते हुए घर पर रहने वाले मेरी प्रव्रज्या भी यथानियम न्यायोचित अन्त में ही सिद्ध होगी (अर्थात् गुरुजनोंकी शुश्रूषा के पश्चात् ही सिद्ध होगी) [अथवा 'अपने इन गुरुजनों की शुश्रूषा करते हुए घर पर रहने वाले मेरी अन्त में ली जाने वाली प्रव्रज्या भी यथानियम न्यायोचित सिद्ध होगी'] ।
सर्वपापनिवृत्तिर्यत् सर्वथैषा सतां मता ।
गुरूद्वेगकृतोऽत्यन्तं नेयं न्याय्योपपद्यते ॥६॥
क्योंकि इस प्रव्रज्या के संबंध में बुद्धिमानों ने कहा है कि वह सब पापों का नाश करने वाली है इसलिए एक ऐसे व्यक्ति की प्रव्रज्या न्यायोचित नहीं हो सकती जो अपने माता-पिता के उद्वेग का कारण बने ।
प्रारंभमंगलं ह्यस्या गुरुशुश्रूषणं परम् ।
एतौ धर्मप्रवृत्तानां नृणां पूजास्पदं महत् ॥७॥
इस प्रव्रज्या के संबंध में किया जाने वाला सर्व प्रथम मंगलकार्य है माता-पिता की शुश्रूषा; सचमुच ये माता-पिता एक धर्माचरणशील व्यक्ति के निकट महान् पूजापात्र हैं ।
स कृतज्ञः पुमान् लोके स धर्मगुरुपूजकः ।
स शुद्धधर्मभाक् चैव य एतौ प्रतिपद्यते ॥८॥
जो व्यक्ति इन माता-पिता की सेवा करता है वही संसार में कृतज्ञ है, वही धर्म-गुरु का (सच्चा) पूजक है, और वही शुद्ध धर्म का भागी है ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि माता-पिता की उपेक्षा करके धर्म-गुरु की पूजा करने वाला व्यक्ति धर्म-गुरु का सच्चा पूजक नहीं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org