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________________ गच्छ-विद्वेषों का सूत्रपात किया, उस समय उसका आचार्यश्री ने शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया और उसके उपस्थित न होने पर, अन्य तत्कालीन समग्र गच्छों के आचार्यों के सन्मुख धर्मसागर को उत्सूत्रवादी घोषित किया था। सम्राट अकबर के आमन्त्रण से आचार्यश्री सं० १६४८ फाल्गुन शुक्ला १२ के दिवस (२५ दिसम्बर १५५२ ई०) वाचक जयसोम, वाचक रत्ननिधान, पं० गुणविनय और पं० समयसुन्दर आदि ३१ साधुओं के परिवार सहित लाहोर में सम्राट से मिले और स्वकीय उपदेशों से अकबर को प्रभावित कर आचार्यश्री ने तीर्थों की रक्षा एवं अहिंसा प्रचार के लिये अनेकों फरमान प्राप्त किये। सं० १६४९ फाल्गुन कृष्णा १० के दिवस लाहोर में सम्राट अकबर से ही 'युगप्रधान' पद भी प्राप्त किया जिसका विशाल महोत्सव सवा करोड़ रुपये व्यय कर बीकानेर के महामन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने किया। इसी पद-प्रदान महोत्सव के समय वाचक मानसिंह (महिमराज) को आचार्य पद देकर अकबर की इच्छानुसार ही जिनसिंहसूरि नाम रखा तथा वाचक जयसोम और वाचक रत्ननिधान को उपाध्याय पद एवं पं० गुणविनय और समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद दिया गया। सं० १६७० आश्विन कृष्णा द्वितीया को बिलाडा में इनका स्वर्णवास हुआ।" आचार्यश्री ने जिनवल्लभसूरि रचित पौषधविधिप्रकरण पर वृत्ति की रचना सं० १६१७ विजय दसमी को पाटण में की। टीका बहुत ही प्रौढ़ एवं प्राञ्जल है, श्लोक परिमाण ३५५८ है। इस कृति के अन्तिम द्विपदीपद्य की व्याख्या उपाध्याय जयसोम ने की है तथा इस टीका का संशोधन तत्समय के प्रतिष्ठित गीतार्थशिरोमणि महोपाध्याय पुण्यसागर, उपाध्याय धनराज और महोपाध्याय साधुकीर्ति ने किया था। स्तवनादि के अतिरिक्त आपकी सर्जित कोई बड़ी कृति प्राप्त नहीं है। आचार्यश्री द्वारा प्रतिष्ठित सैकड़ों मंदिर और हजारों मूर्तियाँ प्राप्त हैं। उपाध्याय जयसोम ___ जयसोम कहाँ के निवासी थे, माता-पिता का क्या नाम था, किस संवत् में जन्म हुआ, आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। सं० १६०५ की प्रशस्ति'° में इनका दीक्षा पूर्व का नाम जयसिंह (जेसिंघ) प्राप्त होता है, अत: दीक्षा समय भी सं० १६०५ से १६१२ के मध्य में सम्भव है क्योंकि दीक्षा गच्छनायक श्रीजिनमाणिक्यसूरि ने स्वयं के करकमलों से प्रदान कर उपाध्याय प्रमोदमाणिक्य गणि का शिष्य बनाया था। इनको वाचनाचार्य पद कब प्राप्त हुआ, इसका भी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। इनकी प्रथम कृति ईर्यापथिकी-ट्विंशिका है इसमें स्वयं के लिये जयसोमेण और इसी की स्वोपज्ञ टीका में (सं० १६४१) जयसोमनाम्ना का ही उल्लेख है और पौषधषट्त्रिंशिका मूल (सं० १६४३) में गणिणा जयसोमनामेणं तथा इसी की स्वोपज्ञ टीका (र०सं० १६४५) में जयसोमगणिनाम्ना का प्रयोग किया है अत: निश्चित है कि सं० १६४१ और १६४३ के मध्य में इनको वाचनाचार्य पद प्राप्त हुआ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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