SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याकरण ग्रन्थों में—उज्ज्वलदत्तीय उणादिसूत्र सवृत्ति, कातन्त्र वृत्ति पंजिका, जिनेन्द्रबुद्धि कृत काशिकावृत्ति - विवरण - पंजिका, क्रियाकलाप, क्रियारत्नसमुच्चय, प्रक्रियाकौमुदी सटीक, लिंगानुशासन, सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन धातुपाठसहित, पाणिनीव्याकरण धातुपाठसहित । अनेकार्थकोषों में—अनेकार्थतिलक, हेमचन्द्रीय अनेकार्थसंग्रह - कैरवाकरकौमुदी टीका सहित, गौड, नानार्थरत्नमाला, नानार्थसंग्रह, विश्वप्रकाश, शब्दप्रभेद, हलायुध कोष आदि । कोष ग्रन्थों में – अभिधानचिन्तामणि- नाममाला, अमरकोष-क्षीरस्वामी टीका, शिलोञ्छनाममाला, शेष संग्रह आदि। अलंकार ग्रन्थों में- काव्यप्रकाश, काव्यप्रकाश टीका, भामहकृत काव्यालंकार, रुद्रटकृत काव्यालंकार-नमि साधु टीका सहित, वामन रचित काव्यालंकार, दशरूपक, ध्वन्यालोक, नाट्यशास्त्र आदि। काव्य - नाटक ग्रन्थों में- किरातार्जुनीय, रघुवंश, शिशुपालवध, मेघदूत, नैषधीय टीका, मुकुटताडितक नाटक, उत्तररामचरित, खण्डप्रशस्ति, कविरहस्य, आनन्दलहरी टीका आदि । इनके अतिरिक्त भी ग्रन्थनाम दिये बिना ही पचासों ग्रन्थों के उद्धरण प्राप्त होते हैं। इससे प्रतिभासित होता है कि गुणविनय गणि समस्त साहित्य शास्त्र के धुरंधर विद्वान् थे । श्लेष प्रधान चम्पू की व्याख्या करते हुए गुणविनय गणि भी श्लिष्ट रचना करने में नहीं चूके। उन्होंने व्याख्या के मंगलाचरण में सरस्वती की तीन अर्थ गर्भित स्तुति भी श्लेषालंकार में की है— ध्यात्वा सरस्वतीं देवीं विबुधानन्ददायिनीम् । सुवर्णां पुण्यरूपां तामलङ्कारविराजिताम् ॥ १॥ ७० अर्थ सरस्वतीं देवीं वाणीं नदीं च । देवीपक्षे - विबुधा: - देवास्तेषामानन्ददायिनीं, वा विबुधा:पण्डितास्तेषामानन्ददायिनीम् । नदीपक्षे - विषु बुधा-हंसास्तेषामानन्ददायिनीम् । देवीपक्षे-शोभनो वर्णः-शरीरच्छविर्यस्याः सा तां वा शोभनाक्षराम् । नदीपक्षे - शोभनाश्चतवर्णां । देवीपक्षे – पुण्यं रूपमाकारो यस्यास्तां। वाणीं पुण्यानि रूपाणिच्छन्दो ग्रन्थप्रसिद्धानि यस्यां सा । नदीपक्षेशुचिस्वरूपां आर्यजनपदेषु भूमेरुपरि वहनात् म्लेच्छजनपदेषु च भूम्यन्तर्वहनात्। देवीपक्षेअलङ्काराः-सौवर्णभूषणानि तैर्विराजितां, वा अलङ्काराः-शब्दार्थालङ्कारा अलङ्कारग्रन्थप्रतीतास्तैः। नदीपक्षे - अलं - अत्यर्थं कस्य - जलस्य आर :- प्राप्तिः तेन विराजिताम् ॥ १ ॥ तुलना करिये – त्रिविक्रमभट्ट कृत दमयन्तीचम्पू मंगलाचरण पद्य ३– अगाधान्तः परिस्पन्दं विबुधानन्दमन्दिरम् । वन्दे रसान्तरप्रौढं स्त्रोतः सारस्वतं वहत् ॥ ३॥ - विवृति की रचना खण्डान्वय शैली में की गई। विशेष्य-विशेषण, उपमेय - उपमान की व्याख्या करते हुए श्लेष पदों की व्याख्या की गई है । जहाँ कहीं भी शब्द - सिद्धि या अर्थ-सिद्धि में दुरूहता है वहाँ व्याकरण एवं अनेकार्थ कोषों से सिद्ध कर अर्थानुसंधान किया गया है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy