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ने इस टीका का संशोधन इन्हीं से लाहोर में करवाया, जिसका रचना प्रशस्ति पद्य २२ में स्पष्ट उल्लेख है। वह समय अकबर का राज्यकाल का ३५ वाँ वर्ष था । यही कारण है कि रचना प्रशस्ति में रचनाकाल का सम्वत् और स्थान तथा संशोधन का स्थान भिन्न-भिन्न दिया है।
चण्डपाल कृत टीका
चण्डपाल ने अपनी व्याख्या में मंगलाचरण पद्य ६-७ में लिखा है कि कुशाग्र बुद्धि वाले विद्वान् भंग श्लेष रचना में समास, कारक आदि सुगम होने के कारण वे स्वयं अर्थ-योजना करने में समर्थ हैं, अत: विषम शब्दों की व्याख्या ही मैं संक्षेप में कर रहा हूँ । कथाभट्ट राजगुरु नन्दकिशोर जी ने इस व्याख्या का नाम विषम-पद- प्रकाश टीका रखा है । व्याख्याकार गुणविनय ने मंगलाचरण पद्य ४ में लिखा है कि चण्डपाल ने अपनी व्याख्या में कुछ पदों की अनिन्दय / प्रशस्त व्याख्या की है। रचना प्रशस्ति पद्य १४ में लिखा है कि चण्डपाल ने दुर्ग/कठिन पदों की विशुद्ध व्याख्या टिप्पनक के रूप में की है। अपनी व्याख्या में गुणविनय गणि ने इसको टिप्पनक के रूप में स्वीकार किया है
टिप्पनकारेण तु प्रसारा इति पाठमधिकृत्य व्याख्यायि, प्रसार:- लध्वापणो विस्तारश्चेति ।
१.
- दमयन्तीकथाचम्पू प्रथम उच्छ्वास पद्य ३१ के पहले का गद्य भाग २. 'निद्रामीलित' इति पाठमधिकृत्य टिप्पनकव्याख्येयम् - " परब्रह्मालोकनसमयसमुल्लासितसान्द्रानंदमय इव । रसस्य हि तत्त्वं परब्रह्मास्वादसोदरत्वं पूर्वाचार्यैर्व्यचार्यत । सुखमय इव निद्रानिमीलित इव आसीदित्युभयत्रापि इव शब्दो योज्यः । अथवा सुखमयः सन् निद्रामीलित इवेतीवशब्दां भिन्नक्रमे ॥"
दमयन्तीकथाचम्पू ६ उच्छ्वास पद्य ४७ की व्याख्या के पूर्व का गद्य भाग की व्याख्या में लिखा है
" अग्रहारो द्विजग्राम" इति विषमपदपर्यायग्रन्थे । यह पाठ चण्डपाल की टीका में प्राप्त नहीं है । विषमपदपर्याय नाम का कोई स्वतंत्र ही ग्रन्थ है।
विवृति की रचना शैली
दमयन्तीकथाचम्पू भंग श्लेष प्रधान रचना है । श्लिष्टपदों की अर्थ-योजना करना सामान्य व्यक्ति के अधिकार के बाहर है । अनेक व्याकरणों का ज्ञाता और अनेकार्थ कोषों का जानकार ही सफलता के साथ श्लिष्टपदों की सम्यक् अर्थ-योजना/व्याख्या कर सकता है। गुणविनय गणि ने भी व्याकरण, अनेकार्थ, कोष, रसशास्त्र के ग्रन्थ और काव्य ग्रन्थ इत्यादि अनेक ग्रन्थों के उद्धरण देकर इस व्याख्या को श्रेष्ठतम बनाया । कतिपय ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं
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