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स्वप्नेऽपि सजनाः सर्वे यस्येमामाशिषं ददुः। त्वं पालय चिराद् राज्य यत्कृपावारिवारिधिः ।। ५॥ यस्य राज्ञः प्रसत्त्यामी धर्मं कुर्वन्ति साधवः। तस्माद् यद्विजयो नित्यं यतो धर्मस्ततो जयः॥६॥ यस्य नाम्नि विराजन्ते विष्णुब्रह्ममहेश्वराः। तेनाऽत्राऽकबरेत्याख्या ख्याता सर्वत्रभूतले॥७॥ विबुधश्रेणिविराजित सविधे वरनन्दनश्रिया मुदिते। कृतगोरक्षे दक्षे शुभनयन इव त्रिदिवनाथे॥८॥ अकबरनृपाधिनृपती विजयिनि शरभुवनसम्मिते (३५) वर्षे ।
श्रीमल्लाभपुरीयं प्राकाशि परा पुरस्सुधियाम्॥९॥ राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर, ग्रन्थांक २९९९४ (अन्तिम पत्र प्राप्त न होने से) की प्रति में पत्र १६४ रचना प्रशस्ति के १९ पद्य ही प्राप्त हैं।
राजगुरु कथाभट्ट श्री नन्दकिशोर सम्पादित नल-चम्पू (चौखम्बा संस्कृत सीरिज, बनारस, सन् १९८९) की भूमिका पृष्ठ १२ में पद्य १६ के पश्चात् १७वें पद्य के रूप में निम्न पद्य प्राप्त है
अकबरनृपाधिनृपतौ विजयिनि शरभुवनसम्मिते (३५) वर्षे ।
श्रीमल्लाभपुरीयं प्राकाशि परा पुरस्सुधियाम्॥९॥ अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर ग्रन्थ संख्या ३२१० (लेखन सम्वत् १६५३) की प्रति में रचना प्रशस्ति के पद्यांक २० से २२ एवं १ से ९ अधिक प्राप्त हैं।
पूर्ण रचना प्रशस्ति का अवलोकन करने पर दो बातें विशेष रूप से ज्ञात होती हैं। पद्य १६ में टीका रचना का समय १६४७ और स्थान सेरुनक बतलाया है। वहीं श्री नन्दकिशोरजी शर्मा ने एवं अनूप संस्कृत पुस्तकालय की प्रति के पद्यांक ९ में अकबर सम्वत् ३५ का उल्लेख करते हुए लाभपुर में इसकी रचना का संकेत किया है। एक ही ग्रन्थ का रचनाकाल और स्थान अलग-अलग उल्लेख करने का क्या अभिप्राय है?
मेरी मति के अनुसार गुणविनय ने १६४७ का चातुर्मास सेरुन्नक में करते हुए इस टीका का लेखन कार्य पूर्ण किया। तत्पश्चात् सम्राट अकबर के अत्यन्त आग्रह पूर्ण अनुरोध को ध्यान में रखकर दादागुरु जिनचन्द्रसूरि जालौर से जब लाहोर पधारे तो आचार्यश्री के आदेश को ध्यान में रखकर गुणविनय भी सेरुन्नक से विहार कर जिनचन्द्रसूरि के साथ हो गये थे। जिस समय श्री जिनचन्द्रसूरि लाहोर में सम्राट अकबर से मिले, उस समय उनके साथ में वाचक जयसोम, कनकसोम, वाचक महिमराज, वाचक रत्ननिधान, गुणविनय और समयसुन्दर आदि प्रौढ़ विद्वान् ३१ साधुगण साथ में थे। वाचक रत्ननिधान व्याकरण शास्त्र के दिग्गज विद्वान् थे। अत: गुणविनय गणि
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