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________________ ६२ भ्रमपूर्ण परम्परा-स्व. श्री नन्दकिशोर जी ने अपने उपोद्धात पृष्ठ १० पर लिखा है-'अत्र विषमपदप्रकाशे १४३ पृष्ठे विवृति नामक टीका निर्देशो वर्तते, किन्तु नायं विज्ञायते यदियं विवृतिः केन कदा निर्मितेति।' इसी का अनुसरण करते हुए कैलासपति त्रिपाठी ने निवेदन पृ.५ पर लिखा है-'आचार्य चण्डपाल ने अपने विषमपदप्रकाश में एक विवृति नामक टीका का उल्लेख किया है।' वस्तुतः विवृति टीका का उल्लेख चण्डपाल ने नहीं किया है किन्तु निर्णयसागर संस्करण के सम्पादक ने पृष्ठ १४३ पर टिप्पणी रूप में गुणविनय कृत 'विवृति' (उच्छास ५ पद्य ५२ के बाद गद्य भाग की टीका) का उद्धरण दिया है जो प्रस्तुत संस्करण में पृ. १४३ पर द्रष्टव्य है। यह उद्धरण टीका-पाठ में न होकर टिप्पणी रूप में होते हुए भी स्व. नंदनकिशोरजी ने इसे चण्डपाल का उद्धरण कैसे समझ लिया विचारणीय है ! त्रिपाठीजी ने भी विचार-विमर्श किए बिना इसी मत का अनुसरण किया है। मैं समझता हूँ त्रिपाठी जी भविष्य में इसका संशोधन अवश्य कर देंगे। चण्डपाल और विषमपदप्रकाश व्याख्याकार चण्डपाल प्राग्वाटवंशीय यशोराज का पुत्र है। इसके बड़े भाई का नाम चण्डसिंह है जो महाकाव्य प्रणेता है। लूणिग चण्डपाल का गुरु (विद्यागुरु) है श्रीप्राग्वाटकुलाब्धिवृद्धिशशभृच्छ्रीमान्यशोराज इत्यार्यो यस्य पिता प्रबन्धसुकविः श्रीचण्डसिंहोऽग्रजः। श्रीसारस्वतसिद्धये गुरुरपि श्रीलूणिगः शुद्धधीः, सोऽकार्षीद् दमयन्त्युदारविवृतिं श्रीचण्डपालः कृती॥ इस व्याख्या में अग्रज चण्डसिंह रचित चण्डिकाचरित महाकाव्य के दो स्थान पर उद्धरण भी दिए हैं।९५ इसके अतिरिक्त चण्डपाल ने स्वयं के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा है। व्याख्या में श्रीहर्ष रचित नैषधीयचरितम्१९६ का उल्लेख होने से तथा १५वीं शताब्दी की इस व्याख्या की प्राचीन प्रति१९७ प्राप्त होने से यह निश्चित है कि चण्डपाल का समय वैक्रमीय १२९० से १४०० के मध्य का है।' प्रो. हरि दामोदर वेल्हणकर ९८ एवं भावबोधिनी टिप्पणीकार श्रीनन्दकिशोर शास्त्री ने चण्डपाल को जैन माना है जो सम्भवतः प्राग्वाटवंशीय (पोरवाल) होने से तथा व्याख्या में सर्वत्र सिद्धहेमशब्दानुशासन व्याकरण के सूत्रों का उल्लेख होने से लिखा है। चण्डपाल जाति से भले ही जैन हों, किन्तु संस्कारों से वैदिक धर्मानुयायी ही हैं जोकि व्याख्या के मंगलाचरण आदि से स्पष्ट ___ यहां यह उल्लेख कर देना अनुचित न होगा कि चौखम्बा संस्करण में नन्दकिशोर शास्त्री ९९ ने व्याख्यागत सिद्धहेमशब्दानुशासन के सूत्रों के स्थान पर पाणिनीय व्याकरण के सूत्रों का प्रयोग किया है और इसका कारण बतलाते हुए लिखा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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