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________________ ५१ किं कवेस्तेन काव्येन किं काण्डेन धनुष्मतः । १७० परस्य हृदये लग्नं न घूर्णयति यच्छिरः ॥ वह सज्जनों की सज्जनता का कायल था किन्तु दुर्जनों से अकारण वैर-भाव मोल लेने को भी अनुचित समझता था । वह निर्दोष और कोमल भावनाओं से रमणीय काव्य-रचना को प्रशस्त मानता था, परन्तु युग के प्रभाव से 'श्लेषश्लाघिश्लोकोक्ति' की ओर उसका रुझान अधिक था। काव्य का उद्देश्य उसके अनुसार मनोरंजन ही था । भंग-श्लेषयुक्त वाक्य-रचना को कठिन मानकर भी वह उसमें प्रवृत्त हुआ है भङ्गश्लेषकथाबन्धं दुष्करं कुर्वता मया । दुर्गस्तरीतुमारब्धो बाहुभ्यामम्भसां पतिः ॥१७१ अपनी रचना को उसने औचित्य सम्पन्न, सरस और मनोहर कहा है संगता सुरसार्थेन रम्या मेरुचिराश्रया । नन्दनोद्यानमालेव स्वस्थैरालोक्यतां कथा ॥ १७२ दमयन्तीचम्पू का अध्ययन करने पर यह भी पता चलता है कि त्रिविक्रम बहुश्रुत व्यक्ति था । वह वेद, उपनिषद्, पुराण, योग, सांख्य, वेदान्त, न्याय, वैशेषिकादि दर्शनशास्त्र, आयुर्वेद, हस्तिविद्या, अश्वविद्या, गारुडिकविद्या, लोकपरम्परा, शस्त्रास्त्रविद्या, गन्धर्वविद्या, स्वप्नविद्या, कल्पसूत्र, छन्द:शास्त्र, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, राजनीति, नृत्य, वाद्य आदि कलाओं का जानकार था। उसने अपने इस ज्ञान का उपयोग श्लिष्ट पद-रचना कुशलता प्रकट करने में किया है । वह विविध ग्राम्य-कथाओं का भी जानकार था । वह व्यक्तिगत संस्कारनिष्ठा से सम्पन्न था। लोकदर्शन में उसकी विशेष रुचि थी । इसीलिए उसने घड़ा लेकर जाने वाली पनिहारिनों और किरात-कामिनियों की जल-क्रीड़ा का सुन्दर वर्णन किया है। Jain Education International पं. बलदेव उपाध्याय ने ठीक ही कहा है कि दमयन्तीचम्पू में कालिदास की कविता की तरह न तो नैसर्गिक मंजुल पदविन्यास है और न भवभूति की रचना की तरह शब्दार्थ का मनोरम सन्निवेश। फिर भी दमयन्तीचम्पू की कविता में कुछ ऐसी विशेषता दिख पड़ती है जो कवि की अपनी सम्पत्ति कही जा सकती है । १७३ दमयन्तीकथाचम्पू में भौगोलिक वर्णन दमयन्तीकथाचम्पू में भारतवर्ष के विशेषतया दक्षिण भारत के स्थान, पर्वतों, नदियों आदि का वर्णन हुआ है। ऐसा ज्ञात होता है कि इनमें से कई स्थानों को कवि ने देखा है और वहां की विशेषताओं से वह सुपरिचित है। कुछ स्थानों का कवि ने नामोल्लेख मात्र किया है। ऐसे स्थानों से कवि का प्रत्यक्ष - परिचय नहीं हुआ ज्ञात होता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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