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________________ नदीमह था। इससे पता चलता है कि ऐसे विविध अनुष्ठान समाज में प्रचलित थे। कवि ने गौरीमहोत्सव का भी वर्णन किया है जो गणगोर पूजन का तत्कालीन रूप होगा। समाज में नेत्र, दुकूल आदि महाघ वस्त्र पहनने का प्रचार था। विविध प्रकार के भोज्य, लेय, पोष्य, पेय व्यंजन बनाए और उपयोग में लिए जाते थे। सामूहिक भोज भी होते थे। भोजन-स्थान वेदी पर, अतिथि, ब्राह्मण, याचक आदि को भोजन देकर, संतुष्ट कर के, गोग्रास निकाल कर, काक बलि देकर और बलिवैश्वदेव क्रिया करके भोजन किया जाता था। भोजनोपरान्त ताम्बूल-भक्षण करने और धूमपान करने की प्रथा भी थी। विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ प्रचलित थीं। बालक धूल में क्रीड़ा करते थे। कन्दुक क्रीड़ा में उन्हें विशेष रुचि होती थी। स्वर्णिम आभूषण पहनने का प्रचार भी था। क्रीड़ा सरोवर में क्रीड़ा करने के लिए लोग जाया करते थे। क्रीड़ा-वापी और क्रीड़ा-शैल भी थे। लोगों का जीवन बड़ा ही समृद्धियुक्त और आनन्दमय था। पति-पत्नी के एकान्त-समागम के स्थान को चित्रशालिका राज.-'चतरसार' कहा जाता था। घरों के बाहर 'बाह्याली' नामक विश्रामगृह होता था। यह आज कल के 'ड्राइंग रूम' की तरह होता होगा। विद्वच्चर्चा का धौतपट्ट वाला श्रोत्रिय भवन होता था। समाज में सौंदर्यनिष्ठा और संस्कारनिष्ठा का अद्भुत समन्वय था। कवि के व्यक्तित्व की झलक दमयन्तीचम्पू में कवि ने अपने वंश का परिचय तो दिया ही है साथ ही प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी न कहने पर भी उसके व्यक्तित्व की झलक इस काव्य में भली प्रकार मिल जाती है। राजाओं की भव्यता का वर्णन करने के कारण यह कहा जा सकता है कि कवि अत्यन्त राजभक्त था और अपने आश्रयदाता के पराक्रम, दानशीलता आदि गुणों पर मुग्ध था। वह शिवभक्त था, यद्यपि उसे अन्य देवताओं की भक्ति से भी विरोध नहीं था। उसने प्रारम्भ में ही शिव की स्तुति की है। सारे काव्य में कहीं पर, कोई भी क्रिया हो, कवि ने शिव का स्मरण किए बिना उसे वर्णित नहीं किया। रात्रि का अंधकार भी उसे अंधक-विजेता शिव का स्मरण कराता है। दक्षिण की शिव और कार्तिकेय भक्ति-परम्परा से कवि सुपरिचित रहा है। कवि का विश्वास है कि शिव, विष्णु आदि की भक्ति में अदीक्षित द्विज को पकड़ लेने में पाप नही है- 'न दीक्षिते द्विजन्मनि निगृहीतेऽपि गरीयः पातकमस्ति।१६९' इससे यह भी संकेत मिलता है कि दीक्षित द्विज को दण्ड नहीं दिया जाता था। वह सुरापान नहीं करता था क्योंकि द्विजों के लिए सुरापान अविहित समझा जाता था। वह चमत्कारप्रिय कवि था। वह मानता था कि कवि की उक्ति सुनकर हृदय पर चमत्कारपूर्ण प्रभाव होना आवश्यक है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004071
Book TitleDamyanti Katha Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2010
Total Pages776
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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